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________________ ३०२ सूत्रकृतांग सूत्र अन्वयार्थ हे पुरुष ! (जययं) तू यत्न (यतना) करता हुआ, (जोगवं) योगवान्--- पाँच समिति और तीन गुप्ति से युक्त होकर (विहराहि) विचरण कर । (अणुपाणा) सूक्ष्म प्राणियों से युक्त, (पंथा) मार्ग (दुरुत्तरा) उपयोग बिना दुस्तर होते हैं । (अणुसासणमेव) शासन-जिन-प्रवचन के अनुरूप शास्त्रोक्त रीति से ही (पक्कमे) संयममार्ग में कदम बढ़ाना चाहिए। (वीरेहि) समस्त रागद्व पविजेता वीर अरिहन्तों ने, (सम्म) सम्यक प्रकार से (पवेइयं) यही बताया है। भावार्थ हे पुरुष ! तू यत्न करता हुआ, पाँच समिति और तीन गुप्ति से युक्त होकर विचरण कर, क्योंकि सूक्ष्मप्राणियों से परिपूर्ण मार्ग को उपयोग और यतना के बिना पार करना दुष्कर है। अत: शास्त्र में या जिनशासन में संयमपालन की जो रीति बतायी है, उसके अनुसार संयमपथ पर चलना चाहिए । सभी तीर्थंकरों ने इसी का ही सम्यक् प्रकार से उपदेश दिया है। व्याख्या उपयोगपूर्वक संयमपथ पर चलो जो साधक अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का सम्यक् पालन करना चाहता है, अपने जीवन का निर्वाह करते हुए संयम पालन करने की जिसमें उत्कण्ठा है, वह जब भी चलेगा, बोलेगा, बैठेगा, सोयेगा, खाये-पीयेगा या कोई भी प्रवृत्ति करेगा तो किसी न किसी जीव को क्षति पहुँचने की सम्भावना है, इसलिए जिससे जीवहिंसा, असत्य आदि दोष भी न हों और जीवननिर्वाह भी हो जाए, इसके लिए शास्त्रकार इस गाथा में तीर्थंकरों के द्वारा भाषित मार्ग का उपदेश देते हैं --'जययं बिहराहि ....... दुरुत्तरा।' इसका तात्पर्य यह है कि यतनापूर्वक सभी कार्यों में प्रवृत्त होना चाहिए । पाँच समिति और तीन गुप्तियों के पालन से यतना आ जाती है।' यतना धर्म की जननी है। इसीलिए पाँच समिति और तीन गुप्ति को अष्टप्रवचनमाता कहते हैं । शास्त्रों (जिनप्रवचन) में यत्र-तत्र संयमपालन की जो विधि बतायी है, उसके अनुसार चलना चाहिए। क्यों चलना चाहिए ? इस शंका के समाधानार्थ कहा है. 'वीरेहिं सम्म पवेइयं ।' तीर्थंकर नरवीरों ने इसी का जोरदार उपदेश दिया है। १. "जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो पावकम्मं न बंधइ ॥" ---दशवैका० अ० ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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