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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन-प्रथम उद्देशक
हो सकती, अत: अब इस गाथा में पापकर्मों से निवृत्ति का उपदेश दिया गया है कि हे पुरुष ! हे विवेकवान् आत्मा ! तू अब तक पापकर्मों में लिपटा रहा, क्योंकि तूने मनुष्यजीवन को शाश्वत समझा, जो कि क्षणभंगुर है, कब नष्ट हो जाएगा, इसका कोई निश्चय नहीं है। मनुष्यजीवन की स्थिति अधिक से अधिक तीन पल्योपम पर्यन्त है, 'पलियंत' शब्द के द्वारा शास्त्रकार ने यह सूचित कर दिया है। अथवा पुरुषों का संयमी जीवन पल्योपम के मध्य में ही होता है। वह भी ऊन-पूर्वकोटिपर्यन्त ही होता है। तात्पर्य यह है कि मनुष्यों का जीवन नाशवान है, इसको अल्पजीवी जानकर, जब तक समाप्त नहीं होता है, तब तक मायादि कषायों से रहित होकर शुद्ध धर्मानुष्ठान करके जीवन को सफल बनाना चाहिए। परन्तु जो व्यक्ति इस मानवभव को पाकर अथवा इस संसार में आकर विषयभोगों की कीचड़ में फंस जाते हैं, तथा इच्छाकाम (कामनाओं) एवं मदनकाम की आसक्ति के जाल में फंस जाते हैं, वे मोहमोहित होकर अपने हिताहित का भान नहीं कर सकते । अथवा 'मोहं जंति' का अर्थ यह भी हो सकता है, वे पुरुष मोहनीयकर्म का संचय करते हैं । जो पुरुष हिंसा आदि से विरत नहीं होते और इन्द्रियविषयों में गाढ़ासक्त होते हैं, वे मोहनीयकर्म का संचय करते हैं। मोहनीयकर्म के संचित होने का परिणाम यह होता है कि वे हिताहित के बोध से विकल रहते हैं। सम्यग्ज्ञान के अभाव में सम्यक्चारित्र का पालन करना तो कोसों दूर है। अत: मोह-कर्म की प्रबलता से बचने के लिए पापकर्मों से निवृत्त होने का प्रयत्न करना चाहिए, यही इस गाथा में उक्त उपदेश का आशय है।
पहले तो मनुष्यजन्म ही दुर्लभ है, उसके बाद श्रावक कुल में जन्म होना और भी कठिन है, इसलिए जब तुम्हें मानवजन्म, उत्तम कुल एवं धर्म का संयोग मिला है तो क्या करना चाहिए ? इसे ही अगली गाथा में बताते हैं...
मूल पाठ जययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा। अणुसासणमेव पक्कमे, वीरेहिं सम्मं पवेइयं ॥११॥
___ संस्कृत छाया यतमानो विहर योगवान्, अनुप्राणाः पन्थानो दुरुत्तराः । अनुशासनमेव प्रक्रामेत् वीरैः सम्यक् प्रवेदितम् ।।११।।
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