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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन–प्रथम उद्देशक
पूर्वगाथा में वीरों का उल्लेख किया गया है, अत: इस गाथा में 'वीर कौन हो सकता है ?' इस सम्बन्ध में बताते हैं
मूल पाठ विरया वीरा समुठिया, कोहकायरियाइपीसणा । पाणे ण णंति सव्वसो, पावाओ विरयाऽभिनिबुडा ॥१२॥
संस्कृत छाया विरता वीराः समुत्थिताः, क्रोधकातरिकादिपीषणा। प्राणिनो न घ्नन्ति सर्वशः पापाद् विरता अभिनिर्वृताः ॥१२॥
___ अन्वयार्थ (विरया) जो हिंसा आदि पापों से विरत हैं, (वीरा) जो कर्मों को विदारण करने में वीर हैं, और (समुट्ठिया) आरम्भ-समारम्भ का त्याग करके मोक्षपथ पर चलने के लिए समुत्थित हैं----उत्साहपूर्वक सन्नद्ध हैं, (कोहकायरियाइपीसणा) क्रोध और माया आदि को दूर करने वाले हैं, तथा जो (सव्वसो) मन-वचन-काया से सर्वथा (पाणे) द्वीन्द्रिय आदि किसी भी प्राणी को (ण हणंति) नहीं मारते, तथा (पावाओ विरया) पापकर्म से (विरया) निवृत्त हैं (अभिनिव्वुडा) वे पुरुष मुक्त जीवों के समान प्रशान्त हैं।
भावार्थ ___ जो हिंसा आदि पापों से दूर हैं, क्रोध, माया आदि कषायों को विदारण करने के कारण वीर हैं, तथा समस्त आरम्भों को छोड़कर मोक्षमार्ग में डटे हुए हैं-संयम के लिए सन्नद्ध हैं। जो द्वीन्द्रिय आदि जीवों को मन-वचन-काया से सर्वथा नहीं मारते, ऐसे समस्त पापकर्मों से रहित पुरुष मुक्त जीवों के समान ही परिशान्त होते हैं, वे ही वीरपुरुष हैं।
व्याख्या
वीर कौन? इस गाथा में वीरपुरुष का लक्षण दिया है। आध्यात्मिक जगत् में वीरपुरुष वे नहीं माने जाते, जो युद्ध में लाखों आदमियों का संहार कर देते हैं, जिनकी एक भ्रकुटि से हजारों आदमी थर्राने लगते हैं, जो अपने मौज-शौक के लिए लाखों निर्दोष प्राणियों को मार डालते हैं, अथवा जो आमोद-प्रमोद के लिए पंचेन्द्रिय वन्य जीवों
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