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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन -- प्रथम उद्देशक
अन्वयार्थ
(जे) जो साधक ( इह ) इस लोक में (मायाइ मिज्जइ) माया आदि से अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय से युक्त मिथ्यादृष्टि है, वह ( जइ वि) कदाचित् (चाहे ) (ण गिणे कि से) नंगा - निर्वस्त्र एवं तपस्या से कृश होकर (चरे) विचरण करे, ( जइवि य) अथवा चाहे वह (मासमतसो ) एक मास के पश्चात् ( एक महीने के अन्त में ) ( भुंजिय) भोजन करे, परन्तु ( तसो ) वह अनन्तकाल तक (गन्भाय ) गर्भवास को ( आगंता) प्राप्त करता है ।
भावार्थ
जो
पुरुष माया आदि कषायों से युक्त है, वह भले ही नग्न निर्वस्त्र एवं घोरतप से कृश होकर विचरण करे, अथवा एक-एक महीने की तपस्या के अन्त में पारणा (भोजन) करे, परन्तु वह अनन्तकाल तक गर्भवास में आता रहता है, अर्थात् उसका संसार घटता नहीं ।
व्याख्या
२६६
कृश और नग्न : फिर भी संसार - संलग्न कई साधक बाह्यपरिग्रह - घरबार, धन-धाम, वस्त्रादि सब छोड़कर बिलकुल नग्न निर्वस्त्र अकिंचन होकर घूमते हैं, कई तापस अतीव घोर तपस्या करके शरीर को सुखा डालते हैं, कई तो इतने उग्रतपस्वी होते हैं, एक-एक महीने की तपस्या करने के बाद भोजन करते हैं, यानी महीने तक निराहार रहते हैं । इतनी कठोर साधना करने पर भी उन साधकों को मोक्ष क्यों नहीं होता ? इसी बात को शास्त्रकार इस गाथा के पूर्वार्द्ध में कहकर उत्तरार्द्ध में उसका समाधान करते हैं'जे इह मायाइ मिज्जइ आगंता गब्भाय णंतसो ।' - इसका आशय यह है कि इतनी कठोर साधना करने पर भी जो व्यक्ति आभ्यन्तर परिग्रह एवं माया आदि अनन्तानुबन्धी कषायों को नहीं छोड़ता, उसे मोक्ष नहीं हो सकता, बल्कि वह माया आदि कषायों से लिपटा रहता है, इसलिए अनन्तकाल तक गर्भवास में आता रहता है ।
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यहाँ 'माया' शब्द से उपलक्षण से समस्त कषायों और आभ्यन्तर परिग्रहों का ग्रहण कर लेना चाहिए । तपस्या से शरीर शुष्क कर लेने या स्थूल - परिग्रह का त्याग करके नग्न हो जाने मात्र से राग-द्वेष-मोह आदि नहीं छूट जाते, उनके छूटे बिना कर्मों से छुटकारा नहीं हो सकता और कर्मों से मुक्त हुए बिना किसी की मुक्ति कदापि नहीं हो सकती । नग्न होकर भी जो साधक राग-द्वेष-मोह कषाय
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