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________________ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन--प्रथम उद्देशक २६७ मल पाठ अह पास विवेगमुठिए, अवितिन्ने इह भासई धुवं । णाहिसि आरं कओ परं वेहासे कम्मेहि किच्चती ॥८॥ संस्कृत छाया अथ पश्य विवेकमुत्थितोऽवितीर्ण इह भाषते ध्र वम् । ज्ञास्यस्यारं कुतः परं विहायसि कर्मभिः कृत्यते ।।८।। अन्वयार्थ (अह) इसके पश्चात् (पास) देखो कि (विवेगं) कोई अन्यतीर्थी परिग्रह को त्यागकर अथवा संसार की अनित्यतता का विवेक (ज्ञान) करके (उठिए) प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, या संयम-पालन करने के लिए उत्थित-उद्यत होते हैं, (अवितिन्ने) किन्तु वे संसारसागर को पार नहीं कर सकते, तथा वे (इह) इस संसार में (ध्रुव) मोक्ष का (भासई) केवल भाषण करते हैं। हे शिष्य ! तुम भी उनके मार्ग (पन्थ) में जाकर (आरं) इस लोक को तथा (परं) परलोक को (कओ) कैसे (णाहिसि) जान सकोगे? वे अन्यतीर्थी (वेहासे) मध्य में-अधबिच में ही (कम्मे हिं) कर्मों के द्वारा (किच्चती) पीड़ित किये जाते हैं । भावार्थ हे शिष्य ! (अथ) इसके पश्चात् यह देखो कि (जिन अन्यतीर्थी साधकों ने) परिग्रह का त्याग करके या संसार को अनित्य जानकर प्रव्रज्या -दीक्षा अंगीकार की है, वे भलीभाँति संयम का अनुष्ठान न करने के कारण संसार-सागर को पार नहीं कर सकते हैं। वे मोक्ष का सिर्फ भाषण करते हैं, उसकी प्राप्ति का उपाय उन्हें ज्ञात नहीं है। हे शिष्य ! तुम उनका आश्रय लेकर इहलोक तथा परलोक को कैसे जान सकोगे ? वे अन्यतीर्थी लोग उभयभ्रष्ट होकर अधबिच में ही रहकर कर्मों के द्वारा पीड़ित किये जाते हैं। व्याख्या मोक्षमार्गी या संसारमार्गी ? जैनधर्म मानता है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है। इससे भिन्न और कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है, न होगा, क्योंकि १. यहाँ 'अथ' दूसरे प्रसंग के प्रारम्भ, अथवा अनेकों को आदेश देने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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