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सूत्रकृतांग सूत्र दाम्भिक अनुष्ठानों में (मुच्छिए) रत या आसक्त हैं तो (ते) वे (कम्मेहि) कर्मों के द्वारा (तिव्व) अत्यन्त तीव्रता से (किच्चती) पीड़ित किये जाते हैं ।
भावार्थ मायामय (दम्भयुक्त) अनुष्ठानों-कृत्यों में आसक्त पुरुष चाहे बहुश्रु त (अनेक शास्त्रपारगामी) हों, चाहे वे धर्माचरणशील हों, ब्राह्मण या माहन हों, भिक्षाजीवी हों, कर्मों द्वारा अत्यन्त पीड़ित किये जाते हैं ।
व्याख्या
दाम्भिक साधकों की दशा
इस गाथा में मायाचारी साधकों की दशा का वर्णन किया गया है। कई साधक अपने को अनेक शास्त्रों में पारंगत मानते हैं, अनेक धार्मिक क्रियाकाण्डों में रत होने के कारण स्वयं को धार्मिक समझते हैं, फूंक-फूंककर कदम रखने के कारण अपने को माहन---ब्राह्मण मानते हैं या भिक्षाजीवी होने के कारण अपने को पवित्र भिक्षु समझते हैं, परन्तु यदि उनके इन विभिन्न अनुष्ठानों के साथ मायाचार है, कपटपूर्वक उत्कृष्ट क्रिया का दिखावा है, लोकवंचना है, जनता को अपनी ओर आकृष्ट करके सम्मान, प्रतिष्ठा, यश या धन बटोरने की चालबाजी है, वस्त्र, पात्र, या सरस स्वादिष्ट आहार पाने की लालसा का मायाजाल है, जनता को अपने वश में करके अपना कोई तुच्छ स्वार्थ सिद्ध करने का षड्यंत्र है, अथवा किसी उच्च पद, सत्ता या वैभव पाने या किसी लौकिक कामना को सिद्ध करने का चक्कर है तो श्रुतपारगामिता, धामिकता, ब्राह्मणता या भिक्षाजीविता उक्त दम्भयुक्त आचार से अत्यन्त दूषित होकर कर्मक्षय करने के बदले घोर कर्मबन्धन की कारण बन जाएगी, और उक्त प्रकारों में से किसी भी प्रकार का साधक अपने मायाचार या दाम्भिक अनुष्ठान में दिनानुदिन अत्यधिक आसक्त एवं मूच्छित होकर अनेक प्रकार के कर्मबन्धन करके जब फल भोगने का समय आएगा, तब उन असा तावेदनीय कर्मों से अत्यन्त पीड़ित- व्यथित होगा, अथवा कदाचित् उसके किसी धर्माचरण, तपश्चरण या अहिंसादि के आचरण के कारण उसे स्वर्गादि या इहलौकिक विषयसुख मिल जाएँ, तो भी वह उस सातावेदनीय कर्म के फलभोग के समय अत्यन्त गृद्ध होकर धर्माचरण से बिलकुल विमुख हो जाएगा। उसके लिए वे ही सातावेदनीय कर्म भविष्य की पीड़ा के कारण बन जाएँगे। यही इस गाथा का तात्पर्य है।
आगामी गाथा में पुनः अन्यतैथिक साधकों की दशा का वर्णन करते हुए शास्त्रकार भगवान् ऋषभदेव के शब्दों में कहते हैं
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