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वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - प्रथम उद्देशक
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मनुष्य सुगति या दुर्गति अपने ही कृतकर्मों से प्राप्त करता है । तब पुत्र अथवा पुत्रतुल्य कोई भी व्यक्ति अपने माता-पिता अथवा माता- पितातुल्य चाचा, मामा, दादा, दादी आदि को न तो तार सकता है, और न पितृतर्पण आदि क्रियाओं से उनकी दुर्गति को बचा सकता है । अगर सुगति प्राप्त करने का उपाय इतना सस्ता हो तो प्रत्येक व्यक्ति चाहे जितने मनमाने पापकर्म करके परलोक जाते समय अपने पुत्र को कहकर पिण्डदान आदि क्रिया कराकर सुगति प्राप्त कर सकता है । फिर तो किसी को दुर्गति होगी ही नहीं । अतः यह मान्यता भ्रमपूर्ण है ।
फिर भी बहुत-से लोग अज्ञानवश अपने पुत्र या पुत्रतुल्य स्वजन पर स्वयं भी आसक्त होकर मोह-ममता में लीन रहते हैं और पुत्र या पुत्रतुल्य स्वजन को मोह-ममता की घुट्टी पिलाकर बार-बार मोह में प्रेरित करते हैं और मरने के बाद पिण्डदान या तर्पण के लिए उसे वचनबद्ध कर देते हैं । इस प्रकार माता-पिता आदि के अज्ञान और मोह के कारण पुत्र आदि भी माता-पिता आदि के प्रति मोहान्ध होकर नाना प्रकार के महारम्भ, आस्रवसेवन आदि करके धर्ममार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं । धर्माचरण के प्रति न तो माता-पिता आदि उद्यम करते हैं, और न पुत्रादि ही धर्माचरण में पुरुषार्थ करते हैं । फलतः ऐसे मोहान्ध एवं पुत्रासक्त माता-पिता आदि के निमित्त से धर्मभ्रष्ट होकर संसार में भटकते हैं ।
इस गाथा के 'मायाहि पियाहि लुप्पई' इस चरण में तृतीया का बहुवचनान्त प्रयोग है। माता-पिता के लिए तो एकवचन का प्रयोग ही पर्याप्त होता, किन्तु बहुवचन का प्रयोग किया गया है, इसके पीछे रहस्य यही प्रतीत होता है कि माता या पिता सिर्फ जन्म देने वाले ही नहीं कहलाते, पितामह, मातामह, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, मामा-मामी आदि भी माता-पिता के तुल्य माने जाते हैं । अथवा 'मायाहि पिया' यह बहुवचनान्त प्रयोग अनेक जन्मों के सम्बन्ध का सूचक है । अथवा यह बहुवचनान्त प्रयोग माता-पिता के सिवाय अन्य सभी पारिवारिकजनों का भी उपलक्षण से सूचक है । मनुष्य इन सभी के अथवा इनमें से एक-एक के प्रति परस्पर गाढ़ मोहान्धता के कारण अनुचित आरम्भ समारम्भादि या हिंसादिजन्य कार्य करता है, धर्म का आचरण नहीं करता । वह सोचता है कि इन्हें छोड़कर मैं अकेला कैसे रहूँगा ? अथवा माता-पिता आदि पारिवारिकजनों के मोह में पड़कर उन्हें प्रसन्न रखने के लिए हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापकर्म करके धनोपार्जन करता है । इस प्रकार उनके मोहपाश में बँधकर धर्माचरण न करके व्यर्थ ही कर्मबन्धन के कारण उन्हीं के साथ-साथ स्वयं भी धर्मच्युत होकर संसार में भटकता रहता है। बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फँसता रहता है । 'मायाहि पियाहि' में
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