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सूत्रकृतांग सूत्र
भयाइं ) इन खतरों - भयस्थानों को (पेहिया) देखकर - जानकर, ( आरंभा ) पहले से ही, आरम्भ से (विरमेज्ज) विरत निवृत्त हो जाय ।
भावार्थ
कोई माता-पिता आदि स्वजनों के मोह में पड़कर धर्ममार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं। माता-पिता आदि उन मोहासक्त लोगों को संसार परिभ्रमण कराते हैं । ऐसे लोगों को मरने पर परलोक में सुगमता से सद्गति प्राप्त नहीं होती । सुव्रती पुरुष को इन भयस्थलों (खतरों) पर विचार करके पहले से ही आरम्भ से निवृत्त हो जाना चाहिए ।
व्याख्या
माता-पिता आदि का मोह : संसार भ्रमण का कारण
पूर्वगाथा में मृत्यु की अनिवार्यता बताई गई थी, मृत्यु की अनिवार्यता बताने का रहस्य यह है कि मनुष्य धर्माचरण करे, ज्ञान- दर्शन - चारित्ररूप मोक्षमार्ग की आराधना करे, ताकि उसे जन्म-मृत्यु का कोई खतरा न रहे। इस पर कोई मातापिता आदि अपनी मृत्यु को रोकने अथवा मृत्यु हो जाय तो भी दुर्गति से अपने आपको बचाने के लिए अपने पुत्र, भतीजे, भानजे आदि को अपने प्रति मोहासक्त करने का प्रयत्न करते हैं, वह इसलिए कि पुत्र आदि उनकी मृत्यु को रोकने का भरसक प्रयत्न करें, अथवा मृत्यु को न रोक सकें तो मरने के बाद उन्हें पिण्डदान दें, उनकी श्राद्धक्रिया करें, पितरों को तर्पण करें, ताकि उन पितरों (माता-पिता आदि ) को सद्गति प्राप्त हो जाय ।
जैसा कि उनके धर्मग्रन्थों में उल्लेख है --
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति, स्वर्गो नैव च नैव च । तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा,
॥
अर्थात् -- जो पुत्रवान नहीं है, उसकी सुगति नहीं हो सकती, क्योंकि पुत्र के बिना माता-पिता आदि को कौन पिण्डदान देगा, कौन तर्पण करेगा ? अतः पुत्रहीन को स्वर्ग नहीं मिल सकता, कदापि नहीं मिल सकता। इसलिए पुत्र का मुख देखकर मनुष्य आनन्द से मृत्यु प्राप्त करे। कितना अज्ञान और भ्रम है, इस मान्यता के पीछे ? अगली गाथा में शास्त्रकार स्वयं बताएँगे कि सुगति दुर्गति का दाता पुत्र यह और कोई नहीं हो सकता, मनुष्य के अपने किये हुए शुभाशुभ कर्म ही सुगति-दुर्गति के दाता हैं । 'सयमेव कडेहि गाहन्ति' इस अगली गाथा के चरण में उक्त न्याय से
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