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________________ २६० सूत्रकृतांग सूत्र तृतीयान्त प्रयोग यह सूचित करता है कि पुत्रादि स्वजनों को माता-पिता आदि के द्वारा मोहपाश में बाँधकर धर्मपथ से भटकाकर पापकर्म के पथ पर चढ़ाकर संसार में भटकाया जाता है, गुमराह किया जाता है । मोहान्ध को सुगति सुलभ कहाँ ? ___इस प्रकार का मोहान्ध मनुष्य हिताहित के विवेक से शून्य होता है, वह अपने माता-पितादि स्वजनों के पोषण के लिए नीच से नीच कृत्य करता रहता है । इस लोक में ऐसा व्यक्ति बदनाम होता है, परलोक में भी उसे सुगति (मनुष्यगति या देवगति) प्राप्त नहीं होती। मोक्षरूप पंचमगति तो ऐसे मोहमोहित व्यक्ति को मिल ही कैसे सकती है ? या तो नरकगति में उसका डेरा होता है या फिर वह तिर्यचगति में अत्यन्त अधम निगोद की योनि में जन्म लेता है। दोनों स्थानों में उसे सम्बोधि प्राप्त होनी अतीव दुर्लभ होती है। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-- 'नो सुलहा सुगई य पेच्चओ।' महापुरुष द्वारा चेतावनी इसीलिए ऋषभदेव भगवान् जैसे महापुरुष अपने पुत्रों के बहाने जगत् के भव्य प्राणियों को चेतावनी दे रहे हैं कि इस महान् खतरे को देखो, सुगति और मुक्ति के अत्यन्त विघ्नकारक इस स्वजनमोह और उससे जनित पापाचरण से प्राप्त होने वाली दुर्गति की भयंकर सजा से बचो। पानी आने से पहले पाल बाँधने की तरह मृत्यु के आगमन एवं दुर्गतिगमन से पूर्व ही सँभलकर सुव्रत (व्रतधारी) बनकर सावद्य (पापयुक्त) कर्मानुष्ठानरूप आरम्भ से विरत हो जाना चाहिए। इसीलिए शास्त्रकार भगवान ऋषभदेव के शब्दों में कहते हैं- 'एयाई भयाइं पेहिया"सुव्वए।' आशय यह है कि माता-पिता आदि स्वजनों के मोह से विवेकविकल होकर उनके निमित्त से नाना पापकर्म करने से जो खतरे पैदा होते हैं, उनसे बचे और सुव्रती बनकर उक्त निरर्थक पापकर्म से दूर रहे। यहाँ माता-पिता आदि के प्रति कर्त्तव्यपालन का निषेध नहीं किया है, किन्तु उनके प्रति मोहान्ध होकर अन्धविश्वास, हिंसाजनक कुप्रथा एवं कुरूढ़ि में पड़कर भयंकर पापकर्म से बचने की प्रेरणा दी गयी है। ___माता-पिता के प्रति मोहवश किये हुए पापकर्मों का फल न तो माता-पिता आदि स्वजन ही भोगेंगे, और पुत्रादि के प्रति मोहवश किये हुए दुष्कर्मों का फल न पुत्रादि ही भोगेंगे, स्वकृत कर्मों का फल अनिवृत्त पुरुष को ही भोगना पड़ेगा। इसी बात को अभिव्यक्त करने के लिए भगवान ऋषभदेव के शब्दों में शास्त्रकार अगली गाथा में कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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