________________
वैतालीय : द्वितीय अध्ययन - प्रथम उद्देशक
a
२८३
उनके ६८ पुत्रों ने संसार को असार और विषयों को अनित्य जानकर तथा आयु को पर्वतीय नदी के समान चंचल एवं यौवन को अस्थिर मानकर पिताजी ( ऋषभदेव भगवान् ) की आज्ञा का पालन ही श्रेयस्कर समझा और उनके पास प्रव्रज्या धारण
कर 1
भगवान् ऋषभदेव का वह उपदेश क्या था ? उन्होंने किस प्रकार का बोध अपने ६८ पुत्रों को दिया था ? वह उपदेश राग-द्वप विदारण में कितना उपयोगी था ? यही इस अध्ययन में विविध पहलुओं से बताया गया है ।
उद्देशों का परिचय दूसरे उद्देशक में
इस अध्ययन में तीन उद्देशक हैं | प्रथम उद्देदेशक में २२ ३२ और तृतीय उद्दे शक में २२ गाथाएँ हैं । इस प्रकार वैतालीय अध्ययन में कुल मिलाकर ७६ गाथाएँ हैं । निम्नोक्त दो गाथाओं द्वारा निर्मुक्तिकार तीनों उद्दे शकों में क्या-क्या विषय है ? इसका निरूपण करते हैं
पढमे संबोहो अनिच्चण य, बीयंमि माणवज्जणया । अहिगारो पुण भणिओ, तहा तहा बहुविहो तत्थ || उद्देसंमि य तइए अन्नागचियस्स अवचओ भणियो । वज्जेयव्वो य सया सुवमाओ जइजणेणं ॥
प्रथम उद्देदेशक में हित की प्राप्ति और अहित के त्याग का बोध एवं अनित्यता का उपदेश है । दूसरे उद्दे शक में अभिमानत्याग का वर्णन है तथा अनेक प्रकार के शब्दादि विषयों की अनित्यता का प्रतिपादन किया है । तीसरे उद्दे शक में बताया गया है कि अज्ञान के द्वारा बढ़े हुए कर्मों का नाश करना आवश्यक है । इसके लिए साधुवर्ग को सुखशीलता एवं प्रमाद का सदा त्याग करना चाहिए ।
प्रथम अध्ययन के अन्तिम उद्देशक की अन्तिम गाथा में बताया गया था कि 'आमोक्खाय परिव्वए' अर्थात् मोक्षप्राप्तिपर्यन्त प्रव्रज्या का पालन करना चाहिए । इस कथन का अनुसरण करते हुए भगवान् आदिनाथ ने भरत के द्वारा पीड़ित अपने सांसारिक पुत्रों को जो उपदेश दिया था, उसे ही शास्त्रकार प्रथम गाथा से प्रारम्भ करते हैं
मूल पाठ
संबुज्झह कि न बुज्झह ? संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । णो हूवणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ १ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org