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सूत्रकृतांग सूत्र
संस्कृत छाया सबुध्यध्वं किं न बुध्यध्वं ? सम्बोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा । नो हूपनमन्ति रात्रयः, नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ।।१।।
अन्वयार्थ (संबुज्झह) हे भव्यो ! तुम बोध प्राप्त करो, (कि न बुज्झह) बोध क्यों नहीं प्राप्त करते ? (पेच्च) मरने के पश्चात् परलोक में (संबोही) बोध प्राप्त करना (दुल्लहा खलु) अवश्य ही दुर्लभ है । (राइओ) बीती हुई रात्रियाँ (णो हु उवणमंति) लौट कर नहीं आती हैं। (जीवियं) और संयमी जीवन (पुणरावि) फिर तो (नो सुलभं) सुलभ नहीं है।
भावार्थ हे भव्यो ! तुम बोध प्राप्त करो। तुम बोध क्यों नहीं प्राप्त करते ? जो रातें बीत चुकी हैं वे वापस लौटकर नहीं आतीं और यह संयमी जीवन भी फिर सुलभ नहीं है।
व्याख्या
दुर्लभ बोधि प्राप्त करने का उपदेश
इस गाथा में आदितीर्थकर भगवान् श्री ऋषभदेव भरत चक्रवती के द्वारा तिरस्कृत होकर विरक्त अपने सांसारिक पुत्रों को लक्ष्य करके उपदेश देते हैं अथवा सुर-असुर, मनुष्य, नाग और तिर्यंचों के प्रति भगवान् कहते हैं --- 'भव्यो ! तुम बोध प्राप्त करो।' वास्तव में बोधि प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। यह हम पहले अध्ययन में स्पष्ट कर आए हैं। वास्तव में अनेक जन्मों के पश्चात् भी मनुष्य को बोध प्राप्त होना दुष्कर होता है। अत: आठ प्रकार के कर्मों को विदारण करने वाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप उत्तमधर्म का बोध प्राप्त करना चाहिए । बोध प्राप्त करने का यही उत्तम अवसर है, इस जन्म के बाद फिर अगले जन्म में बोधप्राप्ति की आशा नहीं रखनी चाहिए। मानलो, अनेक जन्मों के बाद मनुष्य-जन्म मिल भी गया, तो भी आर्यदेश, कर्मभूमि, उत्तम कुल, पाँचों इन्द्रियाँ, स्वस्थ शरीर, दीर्घायु, श्रेष्ठ धर्म आदि का प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। इस प्रकार का उत्तम वातावरण मिले बिना धर्म का बोध करना कितना दुष्कर है ? यह समझा जा सकता है । इसीलिए भगवान् ने कहा-- इस उत्तम अवसर को चूक गए और सम्बोधि प्राप्त नहीं की, तो फिर आगे सम्बोधि प्राप्त होना बहुत मुश्किल है । क्यों कठिन है ? इसके समाधान के लिए कहते हैं—'नो हृवणमंति राइओ !' रात्रियाँ, जो बीत
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