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________________ २८२ सूत्रकृतांग सूत्र वैतालीय नाम रखने के पीछे यह आशय भी प्रतीत होता है कि मोहरूपी वैताल (पिशाच) किस-किस प्रकार से साधक को पराजित कर देता है ? उससे कहाँ कहाँ, कैसे-कैसे बचना चाहिए ? इस प्रकार मोहरूप वैताल के अधिकार को लेकर जिसमें वर्णन हो, वह वैतालीय या वैतालिक अध्ययन अन्वर्थक है। इस अध्ययन का दूसरा रूप 'वेदारिक' होता है। 'वि' उपसर्गपूर्वक .... विदारणे' धातु से क्रियावाचक विदारण करने के अर्थ में विदार शब्द बनता है। विदारण से सम्बन्धित विषय जिसमें हो, उसे वैदारिक कहते हैं। जहाँ क्रिया होती है, वहाँ कर्ता, कर्म और करण..... ये तीन अवश्य होते हैं। अतः नियुक्तिकार कहते हैं कि यहाँ (कर्म) विदारण करने वाला, विदारण का साधन और विदारण करने योग्य पदार्थ तीनों विद्यमान हैं। जैसे---- काष्ठ को विदारण करने वाला व्यक्ति, काष्ठ-विदारण का साधन कुठार, तथा विदारण करने योग्य काष्ठ होता है, वैसे ही इस अध्ययन में कर्मों को विदारण करने वाले साधक का वर्णन है, कर्म-विदारण का साधन पंचसंवर एवं निर्जरा हैं, तथैव विदारण करने योग्य कार्यों का भी वर्णन है। इस दृष्टि से इस अध्ययन का नाम वैदारिक रखना उचित ही है। नियुक्तिकार, चूणिकार एवं वृत्तिकार तीनों इस अध्ययन का अर्थ वैदारिक तथा वैतालीय के रूप में करते हैं । अथवा विदार का अर्थ है--विनाश । यहाँ राग-द्वपरूप संस्कारों का विनाश विवक्षित है। जिस अध्ययन में राग-द्वेष के विदार का वर्णन हो, उसका नाम भी वैदारिक है। द्वितीय अध्ययन की पृष्ठभूमि ___ इस अध्ययन की पृष्ठभूमि यह है कि आदितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव को जब अष्टापद-पर्वत पर केवलज्ञान- केवलदर्शन उत्पन्न हो गया था, उन्हीं दिनों भरतचक्रवर्ती ने अपने सभी भाइयों को अपने अधीन करना चाहा। इस पर विक्षुब्ध होकर भरत के द्वारा सताये गये वे ६८ भाई अपने पूज्यपिता आदितीर्थकर भगवान् ऋषभदेव की सेवा में पहुँचे और उनसे पूछा- “भगवन् ! भरत हम लोगों से अपनी आज्ञा पालन कराना चाहता है, हमारा स्वाभिमान उसकी गुलामी (अधीनता) स्वीकार करने की आज्ञा नहीं देता। अतः हमें बोध दीजिए कि हमें क्या करना चाहिए ?" भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को संसार के पदार्थों की अनित्यता, विषयभोगों के कटुफल तथा संसार की असारता का उपदेश दिया तथा मोक्ष के शाश्वत राज्य को प्राप्त करने की प्रेरणा दी। उस वैराग्यप्रद उपदेश को सुनकर १. कामं तु सासणमिणं कहियं अट्ठावयम्मि उसभेणं । अट्ठाणउतिसुयाणं सोऊण ते वि पव्व इया ॥" _-----सूत्र नियुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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