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द्वितीय अध्ययन : वैतालीय प्रथम उद्देशक : अनित्यता-सम्बोध
यहाँ से दूसरे अध्ययन का प्रारम्भ होता है। प्रथम समय अध्ययन में स्वसमय-परसमयवक्तव्य के सन्दर्भ से कर्मबन्धन से मुक्त होने तथा कर्मबन्धन में फंसने से बचने का उपाय बतलाया गया था। इस दूसरे वैतालीय नामक अध्ययन में भो कर्म-विदारण का उपाय बताया गया है। कर्म का नाश कैसे हो सकता है ? कर्मों का बन्धन भी किन-किन परिस्थितियों में, कैसे-कैसे हो जाता है ? इन सब बातों पर अत्यन्त प्रकाश डाला गया है और कर्मबन्धन से सावधान रहने का उपदेश भी दिया है।
वेयालीय नाम क्यों ? इस अध्ययन का नाम प्राकृत में वेयालीय है। संस्कृत में उसके दो रूप होते हैं—वैतालीय और वैदारिक । वैतालीय नाम रखने का कारण यह है कि यह अध्ययन वैतालीय नामक छन्द में है। उसी छन्द में इस अध्ययन की रचना की गयी है, इसलिए इस अध्ययन का नाम भी वैतालीय रख दिया गया। बैतालीय छन्द का लक्षण इस प्रकार है-जिस वृत्त के प्रत्येक पाद के अन्त में रगण, लघु और गुरु हों तथा प्रथम और तृतीय पाद में छह-छह मात्राएँ हों तथा द्वितीय और चतुर्थ पाद में आठ-आठ मात्राएँ हों। समसंख्या वाला लघु परवर्ण से गुरु न किया जाता हो तथा द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में लगातार छह लधु न हों, उसे वैतालीय छन्द कहते हैं।
१. वैतालीय छन्द का लक्षण यह है
"वैतालीयं लंगनैर्धना: पड्युक्पादेऽष्टौ समे च लः । न समोऽत्र परेण युज्यते नेतः षट् च निरन्तरा युजोः ॥"
-सूत्र० वृत्ति
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