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सूत्रकृतांग सूत्र
वह मध्यस्थ-लोभ है, इन दोनों को भी मुनि छोड़ दे। क्रोध के पहले मान शब्द का प्रयोग मान होने पर क्रोध की अवश्यम्भाविता को सूचित करने के लिए किया गया है। साधक मोक्षप्राप्ति तक संयम में डटा रहे
प्रथम अध्ययन चतुर्थ उद्देशक की इस अन्तिम (१३वीं) गाथा में शास्त्रकार साधु को कर्तव्यबोध देते हैं कि संयमी-जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते हैं, पाँच महाव्रतों का कठोर पालन करना पड़ता है। पांच समितियों के पालन में सदा सचेष्ट (मन-वचन-काया से सदा गुप्त) रहना पड़ता है, तथा प्रतिक्षण अप्रमत्त एवं सावधान रहना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त स्थविरकल्पी साधु आहारपानी, निवास, प्रवचन आदि के सिलसिले में बार-बार गृहस्थवर्ग से सम्पर्क आता है, उससे वास्ता रखे बिना कोई चारा नहीं, किन्तु गृहस्थपाश में बँधे हुए गृहस्थों में साधु आसक्ति न करे, उनसे किसी प्रकार की अपेक्षा न रखे, उनकी ललोचप्पो, चाटुकारी या झटी प्रशंसा न करे, उनसे निलिप्त रहने का प्रयत्न करे, अन्यथा उसका संयम खतरे में पड़ सकता है। गृहस्थों के अतिसंसर्ग से आचार-शैथिल्य आने की सम्भावना है, प्रमाद एवं कषाय से जीवन दुषित होना सम्भव है। अतः जिस प्रकार कमल कीचड़ में रहता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, वैसे ही भिक्षणशील, पंचसमितियुक्त, पंचमहाव्रतों से युक्त, पंचसंवरों से संवृत, तीन गुप्तियों से गुप्त साधु गृहस्थों में निवास करता हुआ भी उनके कर्म (व्यवसाय आदि) से लिप्त न हो।
साथ ही शास्त्रकार अन्तिम चेतावनी देते हुए कहते हैं-हे भाव भिक्षो ! कर्मबन्धनों का क्षय करके उनसे मुक्त होने के लिए सतत संयम के अनुष्ठान में रत रहो, अथवा मोक्ष होने तक संयम में डटे रहो, उसे किसी भी परिस्थिति या संकटापन्न स्थिति में छोड़ने का विचार मत करो। अन्यथा कर्मबन्धन काटने के लिए किया गया अब तक का पुरुषार्थ निष्फल हो जाएगा। सारा ही काता-पीजा कपास हो जाएगा।
इति (त्ति) शब्द अध्याय की परिसमाप्ति का द्योतक है। ब्रवीमि (बेमि) का अर्थ है - मैं कहता हूँ। यह गणधर सुधर्मास्वामी कहते हैं कि श्री तीर्थंकर भगवान् ने मुझसे जैसा कहा है, वैसा ही मैं कहता हूँ।
इस प्रकार सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक अमरसुखबोधिनी व्याख्यासहित समाप्त हुआ। सूत्रकृतांगसूत्र का प्रथम अध्ययन भी सम्पूर्ण हुआ।
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