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________________ २७६ सूत्रकृताग सूत्र बोलना, न दी हुई किसी चीज को न लेना, मैथुन सेवन न करना, परिग्रहवृत्ति न रखना, रात्रि-भोजन न करना, इत्यादि का भी ग्रहण हो जाता है। अगर ज्ञानी पुरुष इतना भी न कर सका तो उसका ज्ञान निरर्थक ही नहीं, भारभूत एवं परिग्रहरूप हो जाएगा। कहा भी है ..... किं तया पठितया पदकोट्या पलालभूतया । येनैतन्नज्ञातं परस्य पीड़ा न कर्तव्या ।। अर्थात्-भूसे के ढेर के समान उन करोड़ों पदों के पढ़ने से क्या लाभ, जिनसे इतना भी ज्ञान न हुआ कि दूसरों को पीड़ा नहीं देनी चाहिए। सारांश यह है कि ज्ञानी के लिए न्यायसंगत यही है कि वह कर्मबन्धन के कारणभूत हिंसा आदि अविरति में न पड़े, कर्मास्रवों में भी न पड़े। यहाँ प्रश्न होता है कि ज्ञानी साधक अहिंसा का आचरण क्यों करे ? इसके उत्तर में शास्त्रकार ने कहा-'अहिंसासमयं चेव एतावंतं वियाणिया ।' आशय यह है साधु ने दीक्षा लेते समय 'करेमि भंते सामाइय' के पाठ से 'समता' की प्रतिज्ञा ली । यह अहिंसा भी एक प्रकार की समता है, अथवा समता का कारण है । जब साधक प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझता है, दूसरों की पीड़ा, दुःख, भय, त्रास आदि को अपनी पीड़ा, दु:ख, भय और त्रास समझे, अथवा अपने प्राणों के समान ही दूसरे के प्राणों को समझे । जैसे मेरे देह आदि के विनाश, प्रहार आदि से मुझे दुःख का अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी होता है । कहा भी है प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा । आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ! । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः ॥ अर्थात्-जैसे हमें अपने प्राण प्रिय हैं, वैसे ही अन्य जीवों को भी अपने-अपने प्राण प्रिय हैं। हे अर्जुन ! जो पुरुष सर्वत्र आत्मौपम्यभाव से दूसरे के सुख या दुःख को अपने सुख-दुःख के समान समझता है, वही उत्कृष्ट योगी माना गया है। इस प्रकार की समता का जीवन में आ जाना ही अहिंसा है । भगवान् महावीर ने 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा' कहकर दूसरों के दुःख-सुख को अपनी आत्मा की तराजू पर तौलने का निर्देश दिया है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि जिस प्राणी को तुम मारना, पीटना, सताना, डराना, अपना गुलाम बनाकर रखना चाहते हो, सोच लो, वह तुम्ही हो..यानी उसके स्थान पर मानो तुम ही हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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