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समय : प्रथम अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक
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प्राप्त करते हैं । मृत्यु, या किसी भी प्राणी पर प्रहार करना, भय, त्रास आदि देना-- हिंसा है । सभी प्राणी मृत्यु, प्रहार, भय, त्रास आदि से डरते हैं, वे इन्हें चाहते नहीं हैं । जब मारने-पीटने वाला हिंसक स्वयं अपने लिए प्रहार या संहार नहीं चाहता, तब दूसरे क्यों चाहेंगे ? इस 'अप्पसमं मनिज छप्पिकाए' (अपनी आत्मा के समान छहों कायों के जीवों को समझे) के अनुसार यह निर्णय करे कि जब मैं अपने आपको हिंसा के योग्य (हिंस्य) नहीं समझता तो इसी प्रकार समस्त जीवों को हिंस्य न समझे, अर्थात् अहिंस्य समझे। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं----'सव्वे अक्कतदुक्खा य, अओ सव्वे अहिंसिया।' 'अक्तदुक्खा' के दो रूप होते हैं--- 'आक्रान्तदुःखा.' और 'अकान्तदुःखाः' । आक्रान्तदुःखा का अर्थ होता है---दुःखों से आक्रान्त-~-व्याप्त, एवं अकान्तदुःखा का अर्थ है--जिन्हें दुःख अप्रिय है, व 'अहिंसिया' का अर्थ है'अहिंस्याः' हिंसा न करने योग्य अथवा हिंसा न करनी चाहिए। इस गाथा में शास्त्रकार ने प्राणिहिंसा न करने का कारण बताया है, तथा प्राणियों को मारने से हिंसा होती है, क्योंकि प्राणी जैसे जन्म लेते हैं, वैसे मरते भी हैं, वे सर्वथा एकान्तनित्य नहीं हैं।
ज्ञानी पुरुष के लिए न्याय्य : अहिंसाचरण दसवों गाथा में भी अहिंसा पर जोर दिया गया है। साथ ही प्राणियों की हिसा क्यों नहीं करनी चाहिए ? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार करते हैं---'एवं ख नाणिणो सारं, जन्न हिसइ किंचन' अर्थात् विशिष्ट विवेकी यानी ज्ञानी पुरुष के इतने विपुल ज्ञान का सार या निचोड़ क्या है ? किसलिए उसने इतना ज्ञान प्राप्त किया ? आत्मा को कर्मबन्धन से मुक्त कराने और बन्धन को भली-भांति समझ कर तोड़ने के लिए । आत्मा कर्मबन्धन से मुक्त तभी हो सकती है, जब हिना आदि से विरत हो । यही कारण है कि 'ज्ञानस्य सारं विरतिः' कहा है। यहां भी ज्ञानी के ज्ञान का सार किसी भी प्राणी की हिंसा न करना है, उपलक्षण से यहाँ झूठ न
१. दशबैकालिकसूत्र एवं आचारांग में भी इसी बात का समर्थन किया है(क) सव्वेजीवा वि इच्छंति जीविउ न मरिज्जिउ ।
तम्हापाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ -- दशवकालिक (ख) सन्वेसि जीवियं पियं....
-आचारांग देखिये इसी से मिलती-जुलती एक आचार्य की गाथा --- किं तीए पढियाए पयकोडीए पलालभूयाए । जत्थेत्तियं न नायं, परस्सपीडा न कायव्वा ।।
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