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सूत्रकृतांग सूत्र इन तीन (पूर्वोक्त ईर्यासमिति, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति तथा एषणासमिति---इन तीन) स्थानों में निरन्तर संयम रखता हुआ मुनि मान, क्रोध, माया और लोभ का त्याग करे ।
भिक्षणशील साधु सदा पाँच समितियों से युक्त और पाँच संवरों से आत्मा को सुरक्षित करके, गृहपाश में बद्ध गृहस्थों में मूर्छा न रखता हुआ मोक्षप्राप्ति-पर्यन्त संयम का पालन करे ।
इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी जम्बस्वामी से कहते हैं- 'यह मैं कहता हूँ।'
व्याख्या
सभी प्राणी अहिंस्य है : क्यों और कैसे ?
शास्त्रकार ने हवी गाथा से १३वीं गाथा तक स्वसिद्धान्त (स्वसमय) के अनुसार कर्मबन्धन के निरोध (संवर) रूप अहिंसा आदि आचारधारा (विरति, अप्रमाद, कषाय-विजय, सम्यक्चारित्र) का संक्षेप में दिग्दर्शन कराया है। नौवीं गाथा में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि समस्त प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन क्यों करना चाहिए? न करें तो क्या आपत्ति है ? पूर्वगाथाओं में लोकवाद तथा सांख्य, वेदान्त आदि मतवादों की झाँकी दी गयी है कि वे आत्मा को एकान्त, कटस्थनित्य मानते हैं; लोक को भी इसी प्रकार कूटस्थनित्य मानते हैं; कई यह भी मानते हैं कि मनुष्य मरकर मनुष्य ही होता है, दूसरी पर्याय में नहीं जाता। इन सब के विपरीत जैनदर्शन की मान्यतानुसार पर्यायदृष्टि से जीव विभिन्न पर्यायों को धारण करता है, इसलिए नाशवान् है। द्रव्यदृष्टि से वह नित्य है, अविनाशी है। यहाँ यह बताया गया है कि संसारी प्राणी विभिन्न पर्यायों को धारण रहते हैं । इसे स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार दृष्टान्त देते हैं-औदारिक शरीर वाले सभी जीवों का योग यानी अवस्थाविशेष उदार अर्थात् स्थल है। औदारिक शरीर वाले प्राणी गर्भ, कलल और अर्बुदरूप पूर्वअवस्था को छोड़कर उससे विपरीत बाल्य, यौवन एवं वृद्धत्व आदि स्थल अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं। आशय यह है कि औदारिक शरीरवाले मनुष्य आदि प्राणियों की कालकृत बाल्य, कौमार्य एवं वृद्धत्व आदि पर्यायें प्रत्यक्ष ही भिन्न-भिन्न देखी जाती हैं। ये सब अवस्थाएँ दुःख से दुःखतर तथा दुःखतम हैं, जिन्हें संसारी जीव प्राप्त करते रहते हैं । अतएव वे दुःख से आक्रान्त हैं । परन्तु जो जैसा पहले होता है, वह सदा वैसा ही रहे, ऐसा नहीं देखा जाता। इसी प्रकार स्थावरजंगम सभी प्राणी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए पाये जाते हैं। अतः संसारी प्राणिमाय मरणधर्मा हैं, वे मरकर विभिन्न योनियों में, विविध पर्यायों को
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