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समय : प्रथम अध्ययन–चतुर्थ उद्देशक
२७३ समयं) अहिंसा के कारण सब जीवों पर समता रखना, (च) और उपलक्षण से सत्यादि, (एतावतं एव) इतना ही (वियाणिया) जानना चाहिए ।।१०।।
(सिए) दस प्रकार की साधुसमाचारो में स्थित (य) और (विगयगेही) आहार आदि में गृद्धिरहित (आयाणं) मोक्ष प्राप्त करने के साधन ---आदानभूत ज्ञान-दर्शन-चारित्र की (सम्मरक्खए या संरक्खए) सम्यक् प्रकार से रक्षा करे । (चरिआसणसेज्जासु) चर्या --चलने-फिरने, आसन . बैठने, और शय्या - सोने के विषय में (अंतसो य) और अन्ततः (भत्तपाणे) आहार-पानी के विषय में सदा उपयोग रखे ॥११॥
(एतेहिं) इन (तिहि ठाणेहि) तीन स्थानों के, (सययं) सतत–निरन्तर (संजए) संयम' में रत (मुणी) मुनि (उक्कसं) उत्कर्ष-मान-अभिमान, (जलणं) ज्वलन-क्रोध, (णूम) माया--कपट, (च) और (प्रज्झत्थं) लोभ का (दिगिचए) परित्याग करे ॥१२॥
(भिक्खू) भिक्षाशील (साहू) साधु (सया) सदा (समिए उ) समिति से युक्त और (पंचसंवरसंवुडे) पाँच संवर से आत्मा को आस्रव से रोकता (सुरक्षित रखता) हुआ (सिएहि) गृहपाश-गृहस्थ के बन्धन में बद्ध गृहस्थों में (असिए) न बंधता--- मुर्छा न रखता हुआ (आनोक्खाय) मोक्ष की प्राप्तिपर्यन्त (परिव्वएज्जासि) संयम का अनुष्ठान करे। (त्ति बेमि) सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं -- इस प्रकार मैं कहता हूँ ॥१३॥
भावार्थ औदारिक त्रसस्थावररूप जगत् के बाल्य, यौवन एवं वृद्धत्व आदि संयोग (अवस्थाविशेष) स्थल हैं, वे विपर्यय (दूसरे पर्याय) को भी प्राप्त होते हैं। सभी प्राणी दुःखाक्रान्त हैं, या सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है, इसलिए सभी प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए।
विवेकी पुरुष के लिए यही न्यायसंगत सारभूत बात है कि बस-स्थावर किसी भी जीव की हिंसा न करे। और अहिंसा के कारण सब प्राणियों के प्रति समता रखना, इतना ही उसे जानना चाहिए ।
दस प्रकार की साधुसमाचारी में स्थित आहार आदि में गृद्धि (आसक्ति) रहित साधु मोक्ष के आदानभूत (कारणभूत) ज्ञान-दर्शन-चारित्र की भलीभाँति रक्षा करे। तथा चलने-फिरने, उठने-बैठने, सोने तथा अन्ततोगत्वा आहार-पानी आदि के विषय में सदैव उपयोग रखे।
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