________________
समय : प्रथम अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक
२७७
तो तुम से हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह आदि का व्यवहार हो ही कैसे सकेगा ? १ वह यों सोचेगा कि अगर मुझे कोई मारे, पीटे, सताए, मेरे साथ झूठ बोले, मेरी चोरी करे, या मेरा सामान अपने कब्जे में कर ले, मेरी बहन-बेटी की इज्जत लूटने लगे तो मुझे कैसा लगेगा ? क्या मुझे उससे दुःख न होगा ? अवश्य होगा । . इसी प्रकार जब मैं दूसरे के साथ ऐसा ही हिंसा आदि का व्यवहार करूँगा तो उसे भी तो दुःख होगा । बस इसी समता - सूत्र से वह अहिंसा आदि का आचरण करे । अहिंसा इसी प्रकार की समता है, इतना सा वह हृदयंगम कर ले, दिल-दिमाग में for ले । यही इस गाथा का आशय है ।
कर्मबन्धनों से आत्म-रक्षा के लिए चारित्र - शुद्धि ग्यारहवीं गाथा में शास्त्रकार चारित्र-शुद्धि के लिए कर्तव्यबोध दे रहे हैं । वास्तव में ज्ञान - दर्शन - चारित्र ये रत्नत्रय ही मिलकर मोक्षमार्ग है - कर्मबन्धनों से मुक्ति का सर्वोत्कृष्ट उपाय है। ज्ञान दर्शन की शुद्धि के लिए तो पिछली अनेक गाथाओं में बहुत सुन्दर ढंग से बताया है, अब यहाँ कुछ गाथाओं में चारित्र-शुद्धि पर खासतौर से जोर दिया है । क्योंकि हिंसा आदि अविरति, प्रमाद, कषाय और मन-वचन-काया योग का दुरुपयोग ये सब चारित्र दोष के कारणभूत हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो ये कर्मबन्धन के मुख्य कारण भी हैं । अतः कर्मबन्धन के निरोध; आंशिक क्षय या सर्वांशत: क्षय के लिए पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दशधर्म, दश समाचारी, द्वादश अनुप्रेक्षा, तपस्या आदि चारित्र का पालन आवश्यक है | अतः शास्त्रकार ने इस बात को यहाँ बताया है - - ' वुसिए य विगयगेही " अंतसो इस गाथा में चारित्रपालन के सम्बन्ध में ७ बातें सूचित की हैं
(१) दस प्रकार की समाचारी में स्थित रहे ।
(२) आहारादि में गृद्धि न रखे ।
(३) रत्नत्रयरूप चारित्र का सम्यक् पालन करे ।
( ४ ) ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणासमिति एवं एषणासमिति का पालन करे ।
९. तुमं सि नाम तं चेवं, जं चेव हंतव्व ति मन्नसि तुम सि नाम तं चेव, जं चेव परिघेत्तव्वं ति मन्नसि तुमं सि नाम तं चेवं, जं चेव अज्जावेयव्वं ति मन्नसि तुमं सि नाम तं चंव, जं चेव उद्दवेयव्वं ति मन्नसि ॥
सगुप्ति समिति-धर्मानुप्रेक्षा- परीषहजयचारित्रैः । तपसा निर्जरा च ।
Jain Education International
- आचारांग सूत्र
- तत्त्वार्थसूत्र अ० र, २-३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org