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________________ २६८ सूत्रकृतांग सूत्र अन्वयार्थ (जे केइ) जो कोई (तसा) त्रस (अदु) अथवा (थावरा) स्थावर (पाणा) प्राणी (चिट्ठति) इस विश्व में स्थित हैं, (से) उनका (अजू) अवश्य (परियाए) पर्याय (अत्थि) होता है । (जेण) जिससे (ते) वे (तस थावरा) त्रस से स्थावर और स्थावर से त्रस होते हैं। भावार्थ इस लोक में जितने भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी हैं, वे अवश्य एक दूसरे पर्याय में परिणत होते हैं। कारण यह है कि बस स्थावरपर्याय को एवं स्थावर वसपर्याय को प्राप्त करता है । व्याख्या लोकवाद का खण्डन : उत्तस्थावर पर्याय परिवर्तन पूर्वगाथा में यह बताया गया था कि लोकवाद यह मानता है कि त्रस, त्रस ही रहता है, स्थावर, स्थावर ही। पुरुष भरकर पुरुष ही बनता है, स्त्री मरकर भी स्त्री ही होती है। इस गाथा में उक्त मान्यता का निराकरण किया हैं - 'जे केइ तसा पागा' आशय यह है-उस उसे कहते हैं, जो त्रास (भय) पाते हैं । द्वीन्द्रिय आदि प्राणी बम है । एवं जो जीव स्थितिशील हैं या जिनमें स्थावरनामकर्म का उदय है, तथा सुषुप्त चतना है, वे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि स्थावर कहलाते हैं । अतः यह मान्यता कि जो जीव त्रस हैं, वे बस ही रहते हैं, स्थावर नहीं होते, या जो जीव स्थावर हैं, वे स्थावर ही रहते हैं, बस नहीं होते यह लोकवाद सत्य नहीं है। __ यदि यह लोकवाद सत्य हो कि जो मनुष्य आदि इस जन्म में जैसा है, दूसरे जन्म में भी वह वैसा ही होता है तब तो दान, अध्ययन, जप, तप, यम, नियम आदि समस्त अनुष्ठान निरर्थक हो जाएँगे। क्योंकि जब यह मान्यता स्थिर हो जाएगी कि आज जो व्यक्ति सामान्य गहस्थ है, वह यदि अगले जन्म में गृहस्थ ही रहेगा या देवगति को प्राप्त नहीं होगा, तब वह यम-नियादि की साधना क्यों करेगा ? लोकवाद के समर्थकों ने भी जीवों का एक पर्याय से दूसरी पर्याय में जाना स्वीकार किया है। जैसा कि वे कहते हैं स वै एष शृगालो जायते यः सपुरीषो दह्यते।' अर्थात्-'वह पुरुष शृगाल होता है, जो विष्ठा के सहित जलाया जाता है।' तथा और भी प्रमाण लीजिए-- For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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