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समय : प्रथम अध्ययन- - चतुर्थ उद्देशक
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बहुत दूर-दूर तक के पदार्थों को देख लेता है । यह सर्वज्ञ को पूर्णज्ञाता न मानने वाले अन्यतिथियों का मत है । इसी आशय को व्यक्त करने हेतु शास्त्रकार कहते हैं - 'सम्वस्थ सपरिमाणं' । अथवा दूसरों का यह कहना है कि समस्त देश - कालों में स्थित पदार्थ समूह परिमाणयुक्त है, परिमित है, अतः इस प्रकार अन्य पौराणिकों का ईश्वर जानता देखता है ।
अथवा इस गाथा के पूर्वार्ध में पौराणिक मत की मान्यता प्रदर्शित की है, क्योंकि उनके मत में ईश्वर का ज्ञान सभी सत् पदार्थों को जानने वाला माना गया है । जैसे कि श्रुति में कहा है- ' यः सर्वज्ञः स सर्ववित्' ( जो सर्वज्ञ है, वह सब जानता है) तथा उत्तरार्द्ध में आजीवक मत में मान्य तीर्थंकर ज्ञान की सीमा बताई गई है ।
अथवा सम्पूर्ण गाथा में पौराणिक मत का ही प्ररूपण है । वह इस प्रकार है - स्वयम्भू ब्रह्माजी का एक दिन चार हजार युगों का होता है और रात्रि भी इतनी ही होती है । कहा भी है
'चतुर्युगसहस्राणि ब्रह्मणो दिनमुच्यते । '
ब्रह्माजी दिन के समय जब सब पदार्थों की सृष्टि करते हैं, तब उन्हें सभी पदार्थों का अपरिमित ज्ञान होता है, किन्तु रात में जब वह सोते हैं, तो उन्हें परिमित ज्ञान भी नहीं होता । इस प्रकार परिमित अज्ञान होने के कारण उनमें ज्ञान और अज्ञान दोनों की सम्भावना परिलक्षित होती है । अथवा वे कहते हैं - ब्रह्मा एक हजार दिव्यवर्ष तक सोये रहते हैं, उस समय वह कुछ नहीं देखते, और जब उतने ही काल तक वे जागते हैं, उस समय वह देखते है । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-- 'धीरोऽतिपासई' यानी धीर ब्रह्मा का यह लोकवादसूचित अतिदर्शन है । इस प्रकार बहुत से लोकवाद प्रचलित हैं ।
अब अगली गाथा में पूर्वगाथाओं में उक्त लोकवाद की लोक की अनन्त, नित्य आदि मान्यता का खण्डन करते हैं -
मूल पाठ
जे केइ तसा पाणा चिट्ठति अदु थावरा Į परियाए अस्थि से अंजू, जेण ते तसथावरा ||८|| संस्कृत छाया
ये केचित् साः प्राणास्तिष्ठन्त्यथवा स्थावराः । पर्यायोऽस्ति तेषामञ्जू येन ते सस्थावराः ||८|
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