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________________ २६६ भावार्थ इस लोक में किन्हीं (पौराणिकों आदि) का यह मन्तव्य है कि ईश्वर या अवतार ( तीर्थंकर या भगवान्) अतीन्द्रिय पदार्थों का द्रष्टा होने से सीमातीत (अनन्त) पदार्थों को जानता अवश्य है, किन्तु सर्वक्षेत्र - काल में सब पदार्थों का ज्ञाता सर्वज्ञ नहीं है । वह परिमित पदार्थों का ज्ञाता पुरुष है । ऐसा धीरपुरुष का अतिदर्शन है । व्याख्या तीर्थंकर, ईश्वर या अवतार कितना ज्ञाता, कितना नहीं ? इस गाथा में लोकवाद के सन्दर्भ में ईश्वर की सर्वज्ञता से सम्बन्धित चर्चा प्रस्तुत करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - 'अपरिमाणं विषणाइ ।' यहाँ सर्वज्ञता के सम्बन्ध में पौराणिक आदि लोकवादियों की दो मान्यताएँ प्रस्तुत की हैं - एक मान्यता तो यह है कि ईश्वर या अवतार अनन्त अपरिमित पदार्थों को जानता है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञाता है । उनकी कोई संख्या नियत नहीं है । दूसरी मान्यता यह है कि हमारा ईश्वर या अवतारी पुरुष अपरिमित पदार्थों का ज्ञाता अवश्य है, लेकिन वह सर्वज्ञ नहीं है, यानी सर्वक्षेत्रकाल के सब पदार्थों का ज्ञाता नहीं है। सीमित (परिमाण) क्षेत्र - काल में ही पदार्थों को जानतादेखता है । अथवा अतीन्द्रिय द्रष्टा तथाकथित तीर्थकर अपरिमित ज्ञानी होकर भी जो अतीन्द्रिय पदार्थ उपयोगी हों, किसी प्रयोजन में आते हों, उन्हीं को जानता है । जैसा कि आजीवक अपने तीर्थकरों के सम्बन्ध में कहते हैं सूत्रकृतांग सूत्र सर्वं पश्यतु वा मावा, इष्टमथं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥ तीर्थंकर सभी पदार्थों को देखे या न देखे, जो अभीष्ट या मोक्षोपयोगी पदार्थ हैं, उन्हें देख ले, इतना ही काफी है । कीड़ों की संख्या का ज्ञान भला हमारे किस काम का ? कीड़ों की संख्या जानने से भला मतलब भी क्या है ? Jain Education International तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृद्धानुपास्महे ॥ अतएव हमें उस (तीर्थंकर) के अनुष्ठान सम्बन्धी या कर्तव्य-अकर्तव्य सम्बन्धी ज्ञान का ही विचार करना चाहिए । अगर दूरदर्शी को ही प्रमाण मानेंगे तो फिर हम गीधों की उपासना करने वाले माने जायेंगे । क्योंकि गीध आकाश में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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