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समय : प्रथम अध्ययन ...-चतुर्थ उद्देशक
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अतिदर्शन है । मूल में यहाँ ‘अतिपासइ' शब्द है, उसका सीधा अर्थ 'अतिदर्शन करता है, होता है। अतिदर्शन का तात्पर्य है--दर्शन का---वस्तुस्वरूप को देखने का अतिक्रमण । वस्तुस्वरूप का यथार्थ दर्शन उसी को हो सकता है, जिसका दर्शन (दृष्टि) सम्यक् हो।
इसके अतिरिक्त लोकवादी मन्तव्य के कुछ नमूने और भी हैं। जैसे वे प्ररूपणा करते हैं.--'अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्यो नैव च नैव च' (जो पुत्रहीन है, उसकी गति नहीं होती, स्वर्ग तो उसे मिलता ही नहीं) 'ब्राह्मणो हि देवता' (ब्राह्मण ही देव है) 'श्वानो यक्षाः' : कुत्ते यक्ष हैं) 'गोभि तस्य गोध्नस्य वा न सन्ति लोकाः' (गाय के द्वारा मारे हुए पुरुष को या गोहत्या करने वाले को लोक नहीं मिलते)।' ये और इस प्रकार के एकान्तिक एवं युक्तिरहित लोकवाद के मन्तव्य हैं । व्यास आदि ने पुराणों में इस प्रकार के लोकवाद का निरूपण किया है।
__ अगली गाथा में शास्त्रकार पुनः पौराणिकों के लोकवाद के सन्दर्भ में ईश्वर के सर्वज्ञत्व के सम्बन्ध में मन्तव्य प्रस्तुत करते हैं --
मूल पाठ अपरिमाणं वियाणाइ, इहमेगेसिमाहियं । सम्वत्थ सपरिमाणं, इति धोरोऽतिपासई ।।७।।
___ संस्कृत छाया अपरिमाणं विजानाति, इहैकेषामाख्यातम् । सर्वत्र सपरिमाणमिति, धीरोऽतिपश्यति ।।७।।
अन्वयार्थ (इह इस लोक में (एगेसि) किन्हीं का आहियं) यह कथन है कि पौराणिकों आदि का अवतार (भगवान् या तीर्थकर (अपरिमाणं) सीमातीत पदार्थ को (किशाणाई) जानता है । किन्तु (सम्बत्थ) सर्वदेश-काल के विषय में (सपरिमाण) परिमाणसहित जानता है, (इति) इस प्रकार (धीरो) धीरपुरुष (अतिपासइ) अतिदर्शन करता है ।
१. ब्राह्मण देवता हैं, कुत्तं यक्ष हैं, इत्यादि बातें आलंकारिक हैं। इनको आलंकारिक
रूप में न मानकर ज्यों का त्यों मानने का यहाँ खण्डन है। परन्तु आलंकारिक रूप में मानने का कोई विरोध नहीं है।
-सम्पादक
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