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समय : प्रथम अध्ययन---चतुर्थ उद्देशक
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गुरु तुकृत्य हुकृत्य, विप्रान्तिजित्यवादतः ।
श्मशाने जागते वृक्षः कंकगृध्रोपसेवितः ।। अर्थात् जो गुरु के प्रति तुं या हुँ कहकर अविनयपूर्ण व्यवहार करता है, तथा ब्राह्मणों को वाद में पराजित करता है, वह मरकर श्मशान में वृक्ष होता है, जो कंक, गिद्ध आदि नीच पक्षियों द्वारा सेवित होता है।
इसलिए बस एवं स्थावर प्राणियों का अपने-अपने किये हुए कर्म के अनुसार पर्यायपरिवर्तन होता ही रहता है । स्मृति में भी स्पष्ट कहा है--
अन्तःप्रज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसम स्विताः ।
शारीरजैः कर्मदोषैर्यान्ति स्थावरतां नराः ।। अर्थात् ---वे मनुष्य शरीर से होने वाले कर्म-दोषों के कारण स्थावर बन जाते हैं, वे अन्दर सुषुप्त प्रज्ञावान तथा सुख-दुःख से युक्त होते हैं ।
अतः 'पुरुष मर कर पुरुष ही होता है' इत्यादि लोकवाद का खण्डन उन्हीं के वचनों से हो जाता है ।
लोकवादियों ने जो यह कहा था कि 'यह लोक अनन्त और नित्य है,' इस विषय में हमारा मन्तव्य यह है कि अगर वे इस दृष्टि से लोक को नित्य मानते हैं कि पदार्थों की अपनी-अपनी जाति (सामान्य) का नाश नहीं होता, तब तो हमें कोई आपत्ति नहीं । क्योंकि ऐसा मानने पर तो जैनदर्शन मान्य परिणामानित्यत्व पक्ष को ही उन्होंने स्वीकार कर लिया। परन्तु यदि ऐसा न मानकर वे पदार्थों को उत्पत्तिविनाशरहित, स्थिर, एक स्वभाव वाले मानकर लोक को नित्य मानते हों तो यह सत्य नहीं है, क्योंकि जगत् में कोई भी पदार्थ उत्पत्ति-विनाशरहित, स्थिर, एक स्वभाववाला नहीं देखा जाता है। अतः ऐसी मान्यता प्रत्यक्षप्रमाण से बाधित है। इस जगत् में ऐसा एक भी पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता जो क्षण-क्षण उत्पन्न होने वाले पर्यायों से युक्त न हो। पदार्थ प्रतिक्षण पर्यायरूप से उत्पन्न होते हुए और विनष्ट होते हुए दिखाई देते हैं। अतएव वे पर्यावरहित कटस्थनित्य कैसे हो सकते हैं ? और फिर एक द्रव्यविशेष की अपेक्षा से कार्यद्रव्यों को अनित्य कहना और आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन को सर्वथा नित्य कहना भी असत्य है । क्योंकि सभी पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त होकर विभागरहित ही प्रवृत्त होते हैं। यदि ऐसा न माना जाएगा तो आकाश-पुष्प के समान वस्तु का वस्तुत्व ही नहीं रहेगा।
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