________________
२५६
सूत्रकृतांग सूत्र लेने की इच्छा (चरे) करे। फिर वह (अगिद्धो) गृद्धि-आसक्ति से रहित (विप्पमुक्को) तथा रागद्वप (मनोज्ञ भोज्य वस्तु पर राग, अमनोज्ञ पर द्वेष व घृणा) से रहित होकर उस आहार का सेवन (उपभोग) करे। (य) और (ओमाणं परिबज्जए) किसी ने नहीं दिया, या खराब आहार दिया, या कम दिया या साधु को झिड़क दिया, उस समय दूसरे का अपमान करना छोड़ दे । अथवा दूसरे द्वारा किये गये अपने अपमान को मन से छोड़ दे -निकाल दे।
भावार्थ विद्वान् सम्यग्ज्ञानी साधु दूसरों (गृहस्थों) द्वारा अपने लिए बनाये हुए आहारों की गवेषणा करे तथा दिये हुए आहार को ही ग्रहण करने की इच्छा करे । भिक्षाप्राप्त आहार में भी गृद्धि (मूर्ची) भाव न रखे। किसी के कुछ कह देने पर भी मुनि उसका अपमान न करे, अथवा किसी के द्वारा किये हुए अपमान को मन से निकाल दे।
व्याख्या
भिक्षाजीवी साधु को आहार के सम्बन्ध में कर्तव्यबोध
पूर्वगाथा में शास्त्रकार ने सुविहित भिक्षु को आरम्भ और परिग्रह से मुक्त महापुरुषों की शरण ग्रहण करने का निर्देश किया था परन्तु बाह्य रूप से आरम्भपरिग्रह का त्याग कर देने पर भी मुनिजीवन में आरम्ग-परिग्रह कुछ नये रूप में आ जाते हैं, उन से बचने के लिए साधु को इस गाथा में कर्तव्यबोध दिया गया है।
साधजीवन में मुख्यतया तीन आवश्यकताएँ होती हैं ---भोजन, वस्त्र और आवास । इन तीनों में मुख्य समस्या भोजन की है । क्योंकि अहिंसा महाव्रत का पूर्ण पालक साधु अगर स्वयं भोजन पकाता या दूसरों से पकवाता है, अथवा जो आहार पकाता है, उसे प्रोत्साहन या अनुमोदन देता है तो इस कार्य से हिंसा होती है, हिंसाजनक कार्य का ही आरम्भ कहा जाता है । अतः साधु को आहार सम्बन्धी उक्त आरम्भ-दोष से बचना आवश्यक है। तब फिर आहार कैसे, कहाँ से प्राप्त करे, जिससे उसे आरम्भजन्य हिंसादोष न लगे? इसका समाधान शास्त्रकार प्रथम पंक्ति द्वारा देते हैं --- 'कडेसु घासमेसेज्जा।' दशवैकालिक सूत्र में संयभी साधु के लिए भिक्षाचरी करके आहार लाने का विधान है, आहार कैसा है ? किसके लिए और क्यों बना है ? इसकी पूरी जाँच (गवेषणा) करने का विधान है। यहाँ भी गवेषणा करने के लिए 'एसेज्जा' शब्द प्रयुक्त किया गया है। अर्थात् सर्वप्रथम साधु को जो भोज्यवस्तु लेनी है, उस पास (आहार) की गवेषणा (जाँच) करनी चाहिए कि यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org