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प्रथम : प्रथम अध्ययन-- - चतुर्थ उद्देशक
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मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इस प्रलोभनकारी सुविधावादी मोक्ष की कल्पना करने वालों से बचो, ऐसे आरम्भपरिग्रहरत प्रव्रजित मुमुक्षु साधक के लिए शरणरूप नहीं हैं । इस गाथा की निचली पंक्ति के द्वारा शास्त्रकार ने परोक्षरूप से सूचित भी कर दिया है कि ऐसे आरम्भ - परिग्रह में ग्रस्त प्रव्रजित महानुभाव शरण के योग्य नहीं हैं, उनकी शरण में जाने से मुमुक्षु पुरुष की आत्मरक्षा नहीं हो सकती ।
प्रश्न होता है कि उपरोक्त प्रव्रजित त्राण नहीं कर सकते तो त्राण पाने के लिए किसकी शरण लेनी चाहिए ? किसकी शरण में प्रव्रजित होना चाहिए ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं - 'अपरिगहा अणारंभा, भिक्खू ताणं परिव्वए ।' इसका आशय यह है कि जो मुमुक्षु एवं भिक्षाजीवी साधक है, उसे उन्हीं की शरण में जाना या प्रव्रजित होना चाहिए, जो आरम्भ और परिग्रह से दूर हो । अर्थात् प्रव्रजित महापुरुष धर्मोपकरण के सिवाय अपने शरीर के भोग के लिए जरा भी परिग्रह नहीं रखते, तथा जो सावध आरम्भ नहीं करते, उन्हीं की छत्रछाया में जाना या प्रव्रजित होना चाहिए। वे कर्मलघु पुरुष हो संसार सागर से भव्यजीवों को पार उतारने में नौका के समान समर्थ हैं, आरम्भपरिग्रहासक्त वेषधारी प्रव्रजित संसारसागर से रक्षा करने या पार उतारने में समर्थ नहीं हैं । अतः औदेशिक आदि आहार को वर्जित करके शुद्धभिक्षापरायण भावभिक्षु सर्वतोभावेन उन्हीं की शरण ग्रहण करे ।
भिक्षाजीवी सुसाधु आरम्भ - परिग्रह से कैसे निर्लिप्त रह सकता है ? इसके विषय में अगली गाथा में शास्त्रकार कहते हैं
मूल पाठ
कडेसु घासमेसेज्जा विऊ दत्त सणं चरे 1
अगिद्ध विमुक्को य, ओमाणं परिवज्जए ॥४॥
संस्कृत छाया
कृतेषु ग्रासमेषयेत् विद्वान् दत्तैषणां चरेत्
अगृद्धः विप्रमुक्तश्च अप (व) मानं परिवर्जयेत् ||४||
अन्वयार्थ
(far) विद्वान् सम्यग्ज्ञानवान भिक्षु ( कडेसु) गृहस्थ द्वारा अपने लिए किये हुए चतुविध आहारों में से (घास ) ग्रास - कुछ ग्रास आहार की ( एसेज्जा ) गवेषणा करे या एषणापूर्वक ग्रहण करे । तथा वह ( दत्त षणं) दिये हुए आहार को विधिपूर्वक
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