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________________ सूत्रकृतांग सूत्र सौदा ! कुछ त्याग करना धरना नहीं है, न कोई आरम्भ समारम्भ या परिग्रह छोड़ना है, केवल गुरु से मंत्र, वेष या अक्षर ले लो, संन्यास या साधुत्व का वेष ले लो, गुरुकृपा से दीक्षा ग्रहण कर लो, बस फिर मोक्ष रिजर्व ( सुरक्षित ) है | खूब अच्छा खाओ, पीओ, मौज करो । .२५४ कुछ प्रत्रजित लोग अपने मत-पंथ में आम जनता को आकर्षित करने के लिए बड़े-बड़े भोजों, भोजनसत्रों या धर्मार्थ भोजनशालाओं का आयोजन करते हैं, . उन भोजनसत्रों में सारे दिन और रात प्रायः भट्टियाँ चलती रहती हैं, भोजन बनाने वगैरह का बहुत अधिक आरम्भ होता रहता है, इस प्रकार लोगों को मुफ्त में खिला-पिलाकर अनेक लोगों को अपने मत के अनुयायी बना लेते हैं । इस प्रकार के अनाप- सनाप आरम्भ समारम्भजनक कार्यों में प्रत्यक्ष हाथ उन्हीं तथाकथित प्रव्रजितों का होता है । इतने बड़े-बड़े भोजनसत्रों को चलाने के लिए वे अपने भक्तों से भेंट के रूप में बड़ी-बड़ी रकमें प्राप्त करते हैं । उस विशालमात्रा में संचित अर्थराशि से उन महन्तों, सन्तों, भक्तों आदि के बड़े-बड़े रंगमहल बनते हैं, प्रचुर • भोग-विलास एवं ठाटबाट की सामग्री जुटाई जाती है, उत्तम भोजन और बहुमूल्य वस्त्रों का उपभोग किया जाता है । इस प्रकार आरम्भ के साथ-साथ परिग्रह तो आ ही जाता है। सांस्कृतिक समारोह भी उसी धन से किये जाते हैं, जिनमें बड़ेबड़े आडम्बर रचे जाते हैं । भोले लोग प्रसादवितरण, आडम्बर एवं भव्य समारोह की चकाचौंध में पड़कर ऐसे सपरिग्रह-सारम्भ प्रव्रजित को गुरु बनाकर उनकी शरण में सर्वस्व समर्पण कर देते हैं । स्त्री भी उस युग में परिग्रह मानी जाती थी इसलिए जहाँ ऐसा भोगीविलासी वातावरण होता है, वहाँ ऐसी भोली-भाली नारियाँ उन आडम्बरियों एवं चमत्कार प्रदर्शकों को गुरु बनाकर उन्हें सर्वस्व समर्पण कर देती हैं, सिर्फ मोक्ष के नाम पर । निगुरे को मोक्ष नहीं होता, इसलिए वे गुरुमंत्र लेकर मोक्ष की आशा में अपनी अस्मत भी लुटा देती हैं । कोई-कोई तो ऐसे महन्तों की गुप्तरूप से उपपत्नी भी बन जाती हैं । इस प्रकार की आरम्भ - परिग्रहवादियों की मोक्ष कल्पना कितनी सुविधाजनक, सुलभ एवं सस्ती है ! अनारम्भी अपरिग्रही की ही शरण लो उपर्युक्त पंक्ति के द्वारा आरम्भ - परिग्रहवादियों के मोक्ष का बोध देकर शास्त्रकार ने सभी साधकों को इस मिथ्यामत से परिचित कर दिया है। उन्होंने डंके की चोट संसार के सभी साधकों की आँखें खोल दीं कि आरम्भ-परिग्रहासक्त साधक भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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