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________________ समय : प्रथम अध्ययन -- चतुर्थ उद्देश २५३ प्राचीनकाल में भारतवर्ष में कुछ ऐसे सम्प्रदाय थे, जो पत्नीपुत्रसहित ऋषिन बन जाते थे, वे या तो जंगलों में रहते या फिर बस्ती में रहते थे । जैनों के दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में निर्धन्य श्रमण दीक्षा से भ्रष्ट होकर यति और भट्टारक बने जो आरम्भपरिग्रह में लिप्त रहने लगे। इसी प्रकार संन्यासियों एवं परिव्राजकों में से भ्रष्ट होकर कुछ लोग 'महन्त' बन बैठे, जो बड़ी-बड़ी जमींदारी तथा धन-सम्पत्ति के मालिक बन गये । यहाँ तक कि गुप्तरूप से स्त्री भी रखने लगे । उनके इतने ठाउवाट के साथ नौकर-चाकर तो जुट जाने स्वाभाविक ही थे । यति लोग भी राज्याश्रित होकर पालकी, छत्र, चेंबर आदि ऐश्वर्यसामग्री का उपभोग करने लगे । भिक्षावरी नाममात्र को रह गयी, वहुधा वे पचन-पाचन, आयुर्वेदिक दवाओं तथा रसायनों के निर्माण में तथा विविध यंत्र-मंत्रों के प्रयोग में संलग्न रहने लगे । कुछ लोग जैनों में चैत्यवासी या वैदिकों में मन्दिरवासी या पुजारी बन गये । वे चैत्य या मन्दिर में पूजापाठ आदि के नाम पर जो भेंट चढ़ावा या धन आता, उसका स्वय उपभोग करने लगे । ये जितने भी संन्यास, साधुत्व या मुनित्व के विकृत रूप हुए, वे सब विविध प्रकार के आरम्भ-समारम्भ के कार्यों में खुलेआम जुट पड़े, परिग्रह के नाना रूपों में आसक्त हो गये । और इस प्रकार के आरम्भ परिग्रह में लिप्त साधुनामधारी प्रव्रजित लोग अपनी उक्त चारित्रिक दुर्बलता को छिपाने के लिए कहने लगे'आरम्भ - परिग्रह से युक्त पुरुष भी मोक्षमार्ग का आराधन कर सकते हैं । यह आरम्भ और परिग्रह हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं करते । अमुक आश्रम, मन्दिर, चैत्य, गठ, संस्थान, उपाश्रय या संस्था की जमीन-जायदाद, धन-सम्पत्ति है । आश्रम, भोजनतंत्र आदि को सुचारु रूप से चलाने के लिए समय-समय पर समारोह, अतिथि सत्कार, प्रसादवितरण आदि करना पड़ता है, जिसमें आरम्भसमारम्भ होता है, पर वह होता है, अमुक आश्रम आदि सार्वजनिक संस्थान के लिए ।' परन्तु इतना सब होते हुए भी उसके पीछे एकत्रित होने वाली चल-अचल सारी सम्पत्ति का स्वामित्व उन्हीं तथाकथित प्रव्रजित ऋषि, मुनि, यति, योगी, भट्टारक, महन्त या पुजारी, भक्त आदि का रहता है। उन्हीं के आदेश - निर्देश से सारे आरम्भ-समारम्भ होते हैं, इसलिए ऐसे व्यक्ति आरम्भ - परिग्रह से निर्लिप्त नहीं कहे जा सकते। ऐसे मुस्टंडे साबुनामधारी लोग यह सोचते हैं और कहते रहते हैं, केवल गुरुमंत्र लेने की आवश्यकता है, न सिर मुढ़ाना है, न जटा बढ़ाना है, न कान फड़ाना है, गुरुकृपा से परमअक्षर की प्राप्ति अथवा दीक्षाप्राप्ति हो जाय तो बस बेड़ा पार हो जाता है, मोक्ष मिल जाता है । कितना सस्ता है, यह मोक्ष का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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