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सूत्रकृतांग सूत्र
मूल पाठ सपरिग्गहा य सारंभा, इह मेगेसिमाहियं । अपरिग्गहा अणारंभा, भिक्खू ताणं परिव्वए ॥३॥
संस्कृत छाया सपरिग्रहाश्च सारम्भा, इहैकेषामाख्यातम् । अपरिग्रहान् अनारम्भान् भिक्षुस्त्राणं परिव्रजेत् ॥३॥
अन्वयार्थ (सपरिगहा) परिग्रहधारी (य) और (सारंभा) आरम्भ करने वाले जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं, यह (इह) मोक्ष के सम्बन्ध में (एगेसि) कतिपय मतवादी (आहियं) कहते हैं। (भिक्खू) परन्तु भावभिक्षु निन्धमुनि (अपरिग्गहा अणारंभा) निष्परिग्रही और अनारम्भी पुरुषों के (ताणं) शरण में (परिचए) जाए।
भावार्थ इस जगत् में आरम्भ-परिग्रहमतबादी कई अन्यतीर्थी कहते हैं कि परिग्रह रखने वाले जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं। किन्तु निम्रन्थ भावभिक्षु निष्परिग्रही एवं अनारम्भी महात्माओं की शरण में जाए।
व्याख्या आरम्भ-परिग्रहवादियों का मोक्ष
इस गाथा में एक ऐसे विचित्र मत का रहस्योद्घाटन कर रहे हैं, जिसका यह मन्तव्य है कि आरम्भ करने वाले और परिग्रह रखने वाले पुरुष ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। इसके लिए दो शब्द शास्त्रकार ने प्रयुक्त किये हैं ...सराहा य सारंभा। जो धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद (दास-दासी या चौपाये जानवर), मकान, जमीनजायदाद, शरीर के सुखसाधन एवं भोज्यसामग्री, एवं स्त्री-पुत्र आदि रखते हैं, वे 'सपरिग्रह' कहलाते हैं । धन-धान्य आदि न होने पर भी जो शरीर और भंडोपकरण आदि में ममता-भूर्णी रखते हैं, वे प्रव्रज्याधारी भी परिग्रही हैं। जो पटकायिक जीवों का संहार करने वाला व्यापार (कार्य) करते हैं, वे 'सारम्भ' कहलाते हैं। जो जीवों का विनाशजनक व्यापार (प्रवृत्ति) न करते हुए भी औद्देशिक आहार खाते हैं, वे प्रवृजित भी सारम्भ कहलाते हैं। शास्त्रकार का संकेत मोक्ष के सम्बन्ध में ऐसी विचारधारा वालों के प्रति है, जो यह मानते हैं कि आरम्भ-परिग्रह में ग्रस्त प्रव्रजित भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
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