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समय : प्रथम अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक
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को हीन कुल-जाति का होने से तिरस्कृत करे। अगर कोई व्यक्ति सरलतापूर्वक अपने आचारशैथिल्य का कारण बताकर स्वीकार करता है तो सिर्फ अन्यतीर्थी होने के कारण उसे बदनाम करके, अपनी बड़ाई करके उच्च आचारी होने की प्रगल्भता न करे। इसीलिए कहा है कि ऐसे समय में अनुत्कर्ष से मुक्त रहे । जाति, कुल, आचार, शास्त्रज्ञान आदि के मद से दूर रहे। यानी किसी अन्यतीर्थी के साथ उक्त साबु का व्यवहार बहुत ही नम्रता, कोमलता, सरलता और क्षमा का होना चाहिए. तभी तो वह उसे सत्पथ पर ला सकता है। यदि आचारशथिल्प देखते ही भड़क उठेगा, उसे बदनाम करने लगेगा, उससे रूखा व्यवहार करके उपेक्षापूर्वक दुरदुराने लगेगा, तो वह उसे सुधार तो सकेगा ही नहीं, उलटे दोनों ओर से तीनकषायवश कर्मबन्धन होगा। इसीलिए भगवान् महावीर ने नवीन कर्मबन्धन न हो, पुराने बद्धकर्म टूटे, इसी उद्देश्य से अन्यतीथिक साधुओं के साथ व्यवहार के लिए यह बोधसूत्र दे दिया है।
साथ ही अन्यतीथिक साधु को भलीभाँति जान-परख लेने के बाद यदि ऐसा प्रतीत होता है कि वह गन्दे विचार का है, मिथ्यामुड़मान्यताओं से युक्त है, उसके मन में दूध और रोष है, तथा उसका आचार भी अत्यन्त निकृष्ट है, इतना ही नहीं, उसमें किसी प्रकार की सरलता नहीं है, मिथ्याभिमान का पुतला है, तो उसके विषय में निम्नोक्त सावधानी बरतने की शास्त्रकार ने हिदायत दी है---(१) वियं तेसुण मुच्छए, (२) अप्पलीणे, (३) मज्झण मुणि जायए । आशय यह है कि ऐसे विचार-आचार से हीन तथाकथित परिव्राजकों के प्रति किसी प्रकार की ममता या आसक्ति न रखे, उनके साथ संसर्ग, अतिपरिचय, या अतिसम्पर्क न रखे, तथा मध्यस्थभाव से वस्तुस्वरूप का विचार करके व्यवहार करे ।
आशय यह है कि तीन लोक के तत्त्व को जानने वाला मुनि आठ प्रकार के मदस्थानों में से किसी भी प्रकार का मद न करता हुआ तथाकथित परतीर्थी पाशस्थ आदि के साथ संसर्गरहित होकर व्यवहार करे। परतीर्थी आदि के साथ यदि कदाचित वास्ता पड़ जाय तो साधु अहंकाररहित होकर, भाव से उनके साथ संसर्ग न रखता हुआ, आत्मप्रशंसा एवं उनकी निन्दा न करता हुआ रागद्वेषरहित होकर संयमी जीवन यापन करे ।
अब शास्त्रकार अगली गाथा में आरम्भ-परिग्रहवादी अन्यतीथिकों के मत का परिचय देते हुए निर्ग्रन्थभिक्षु को आरम्भ-परिग्रहरहित महान् आत्माओं को शरण ग्रहण करने का कर्तव्यनिर्देश करते हैं
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