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________________ २५० सूत्रकृतांग सूत्र व्याख्या ऐसे वेषधारी से अनासक्त असंसर्ग होकर रहे इस गाथा में सुविहित निर्ग्रन्थ भिक्षु के लिए भगवान महावीर का उपदेशनिर्देश है कि साधु ऐसे ढोंगी एवं वेषधारी प्रव्रजित के साथ अवसर आने पर मध्यस्थ रहे, न तो सर्वथा रूक्ष या उपेक्षक रहे. और न ही उसके साथ तादात्म्यभाव रखे, न मूर्छा-ममता रखे । बल्कि अनासक्त-सा, संसर्गरहित होकर रहे, अपने संयमी जीवन को निभाए। परन्तु इस बोध के साथ ही शास्त्रकार ने दो खतरों से सावधान रहने का निर्देश ऐसे संयमी सुसाधु को किया है ---'अणुक्कसे परिन्नाय'-~-अर्थात् वह भिक्षु पहले उन तथाकथित अन्यतीथिकों को देखते ही न भड़क उठे, उनका नाम सुनते ही रोष से वह आगबबूला न हो जाय, उनका साक्षात्कार होते ही वह पूर्वाग्रहवश उनके प्रति सहसा गलत धारणा न बना ले, उनके प्रति अन्यतीर्थी होने के कारण ही सहसा दोषारोपण न करे, उनके विचार-आचार को जाने बिना उन पर एकदम बरस न पड़े । ऐसे किसी भी अन्यतीथिक साधु से वास्ता पड़ने पर सर्वप्रथम उनसे मिले, उनके विचार-आचार के भलीभाँति जाने, उन्हें देखे परखे, तभी उनके साथ व्यवहार करने का निर्णय करे। इसीलिए यहाँ शास्त्रकार ने परित्राय' शब्द दिया है, जिसका अर्थ होता है ज्ञ-परिज्ञा से सर्वप्रथम उन्हें भलीभांति जान ले-परख ले। अकसर ऐसा होता है कि अन्यतीर्थी लोगों में भी अम्बड़ परिव्राजक जैसे भव्य महान् एवं सरलात्मा मिल जाते हैं, जो विद्वान्, विचारक, अनाग्रही, तटस्थ एवं सम्यग्दर्शन के अभिमुख होते हैं। इसीलिए तो अतीर्थसिद्धा और अन्यलिंगसिद्धा कहकर वीतरागप्रभु ने अन्यतीर्थ (धर्मसंव एवं अन्य साधुवेष) में भी मुक्त होने का विधान किया है। अतः पहले उन्हें भलीभाँति देखने-परखने के बाद ही उनके साथ व्यवहार का निर्णय करे। दूसरा विशेषण है.---'अणुक्कसे' । इसका अर्थ है मान लो, किसी साधु का अपना आचार-विचार उच्च है, वह वास्तव में इन्द्रिय, मन पर संयम एवं कषायविजय की साधना में जी-जान से जुटा हुआ है, उच्च जाति-कुल का है, और वह किसी साधु में कुछ शिथिल आचार देखता है, तो वह अपने उच्च आचार-विचार की, उच्च क्रियाकाण्ड की डींग न हाँके, मिथ्याभिमान से अपने आपको ऊँचा या बड़ा कहने का प्रयत्न न करे, न ही दूसरों की निन्दा, बदनामी या नीचा दिखाने की वृत्ति से प्रेरित होकर कोई व्यवहार करे। दूसरों की निन्दा या बदनामी पर अपने आचार-विचार का सिंहासन ऊँचा जमाने का प्रयत्न न करे। न अन्य आचारवान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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