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समय : प्रथम अध्ययन----चतुर्थ उद्देशक
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अन्यतीर्थी तथाकथित वेषधारक शरण्य-शरण के योग्य नहीं हैं, अथवा ये स्वयं अपना भाग नहीं कर सकते हैं, इसलिए दूसरों की आत्मा की रक्षा भी करने में समर्थ नहीं हैं।
सारांश यह है कि परिव्राजक जीवन अंगीकार करके पुन: गृहस्थ के सावद्यकार्यों की प्रेरणा करने वाले वे लोग मोहबन्धन से बद्ध होने के कारण शीघ्र बन्धनमुक्त नहीं हो पाते।
ऐसे तथाकथित परिव्राजक के साथ सुविहित साधु को कैसा व्यवहार रखना चाहिए इस सम्बन्ध में अगली गाथा शास्त्रकार प्रस्तुत करते हैं
मूल पाठ तं च भिक्ख परिन्नाय, वियं तेसु ण मुच्छए । अणुक्कसे अप्पलोणे मझेण मुणि जावए ॥२॥
संस्कृत छाया तच्च भिक्षुः परिज्ञाय, विद्वांस्तेषु न मूर्छन् । अनुत्कर्षोऽप्रलीनो, मध्येन मुनिर्यापयेत् ॥२॥
अन्वयार्थ (वियं भिक्ख) विद्वान् निर्ग्रन्थभिक्षु (तं च) उन अन्यतीथिकों को (परिन्नाय) भलीभाँति लानफर (तेसु ण मुच्छए) उनमें मूर्छा (आसमित-ममता) न करे । (मुणि) अपितु वस्तुस्वभाव का मनन करने वाला मुनि (अणुक्कसे) किसी प्रकार का मद न करता हुआ, (अप्पलोणे) उन वैचारिक एवं आचारिक दृष्टि से शिथिल, प्रमत्त तथाकथित साधुओं के साथ अति सम्पर्क न रखते हुए (मज्झण) मध्यस्थभाव से (जावए) अपने संयम का निर्वाह करे।
भावार्थ विद्वान् भिक्ष पूर्वोक्त प्रकार के विचार-आचार में शिथिल, अन्यतीथिकों को जानकर उनके प्रति मूच्छित--आसक्त न हो। तथा किसी प्रकार का मद न करता हुआ, उनके साथ संसर्गरहित होकर मध्यस्थवृत्ति से रहकर संयमी जीवन यापन करे ।
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