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है । आप मेरे उन चिर-परिचित स्नेही साथियों में से एक है, जिन की स्नेहसिक्त आत्मीयता की मधुवारा अनेकानेक विघ्नों, उपद्रवों एवं अवरोधों में बाद भी उसी सहज प्रवर्धमान गति से प्रवाहित है । पण्डितजी और पण्डितजी के अनुयायी शिष्य-प्रशिष्य सुविश्रुत नीतिकार भर्तृहरि की उस सज्जन मंत्री के पक्षधर हैं, जो पूर्वार्ध दिन की छाया की भांति निरन्तर क्षीण नहीं होती, अपितु परार्ध दिन की छाया की भाँति सतत प्रवर्धमान होती जाती है ।
" दिनस्य पूर्वार्ध - परार्धभिन्ना, छायेव मैत्री खल-सज्जनानाम् ।"
श्री सूत्रकृत् द्वितीय अंग आगम का प्रस्तुत संस्करण मेरे आत्मप्रिय पण्डित जी की ही उल्लेखनीय देन है । आपके द्वारा पूर्व सम्पादित प्रश्नव्याकरण अंग आगम, जो सन्मति ज्ञानपीठ आगरा से प्रकाशित हुआ है, उसी की उदात्त शैली के अनुरूप प्रस्तुत आगम की भी अपनी शैली है । मूलपाठ और अर्थ आदि में शुद्धता का काफी ध्यान रखा गया है । अनन्तर विस्तृत व्याख्या में मूल के गूढ़ एवं गुरुगंभीर भावों के उद्घाटन में अत्यधिक श्रम किया गया है। जहाँ तक साधन उपलब्ध थे, बहुत कुछ अच्छा बन पड़ा है । अस्वस्थता के कारण मैं अधिक विस्तार में गहराई से तो प्रस्तुत संस्करण का अवलोकन नहीं कर सका हूँ किन्तु विहंगम दृष्टि से यत्रतत्र जो दृष्टिपात किया है, उस पर से मैं यह कह सकता हूँ कि अन्य संस्करणों की अपेक्षा यह संस्करण अधिक सुन्दर है, अधिक हितकर है।
पण्डितजी अनुवादक हैं, व्याख्याकारक हैं, और उनके प्रपौत्र - प्रशिष्य प्रवचनभूषण श्री अमरमुनि जी सम्पादक हैं । सम्पादक का भी अपना एक सुकर्म होता है, वह पूर्वनिर्मित स्वर्णालंकार पर योग्य परिमार्जन है, आकर्षक संस्कार है । श्री अमरमुनि जी का यह सम्पादन-संस्कार काफी मनोमोहक है | पंजाब के श्रमण संघ में मुनिश्री उदीयमान ओजस्वी तरुण प्रवक्ता है। हजारों की संख्या में जैन- अजैन श्रोता मुनिजी की सुधावर्षिणी मधुरवाणी जब भी सुनते हैं, तो मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । प्रसन्नता है, प्रवचन के साथ साहित्य में भी मुनिजी अपना एक विशिष्ट कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं, जिसकी मुखर साक्षी प्रस्तुत सम्पादन दे रहा है । मैं उनके उस उज्ज्वल एवं महनीय भव्य भविष्य की कामना करता हूँ, जो जैन संघ के वर्तमान गौरव को शीघ्र ही चार चाँद लगाए, निर्मल यशोगान से दिदिगन्त गुँजाए ।
उक्त साहित्य स्वर्णशृंखला के निर्माण एवं प्रकाशन में प्रेरणास्रोत हैं मुनि श्री पदमचन्द्रजी, जिन्हें हम सब भंडारीजी के अतिप्रिय मधुर नाम से सम्बोधित करते हैं । भंडारीजी सेवाधर्म की जीवन्त मूर्ति हैं । सर्वतोभावेन सेवा के प्रति वे प्रारम्भ से ही समर्पित रहे हैं । भगवान महावीर के शासन के गौरव की श्रीवृद्धि के
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