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* राष्ट्रसंत उपाध्याय कवि श्री अमरमुनि
शुभाशंसा
आगम प्रकाशन की चिरकाल से एक लम्बी शृङ्खला बनती चली आ रही है। विभिन्न स्थानों से विभिन्न रूपों में आगमों का प्रकाशन हुआ है, और हो रहा है । आये दिन आगम प्रकाशन योजनाओं का कोई-न-कोई नया शंखनाद सुनने को मिल जाता है।
___ मैं बहुत वर्षों से चाहता था कि आगम प्रकाशन से पूर्व आगम संपादन के लिए एक सर्वदलीय विद्वत्सम्मेलन हो। उसमें परस्पर खुले मन से नये-पुराने सभी मस्तिष्क चिन्तन-मनन करें। अन्त में सर्वसम्मति से या बहुसम्मति से जो भी सत्यानुलक्षी एकवाक्यता हो, एक निर्णय हो, तदनुसार आगम-साहित्य का, आगमों की गरिमा के अनुरूप सम्पादन एवं प्रकाशन किया जाय । अखिल भारतीय स्थानकवामी जैन कान्फ्रन्स और पूर्वकाल में नव प्रस्थापित स्था० वर्धमान श्रमण संघ के द्वारा जब-जब मुझे आगम साहित्य के सम्पादन आदि का काम सौंपने हेतु चर्चाएँ चलीं, तव-तब मैंने स्पष्ट शब्दों में अपने उपर्युक्त विचार व्यक्तिगत-परामर्शों एवं समाचारपत्रों के माध्यम से जनता के सामने रखे हैं। परन्तु हादिक खेद है, सामूहिक कर्म की उदार मनोवृत्ति के अभाव में यह बेल चढ़ाने पर भी मढे न चढ़ सकी। इतना लम्बा समय हो चुका है, आज भी यही स्थिति है। प्रतीक्षा है, आगम मन्दिर पर कभी-न-कभी सामूहिक चिन्तन-मनन का, यथार्थदर्शी सम्पादन-प्रकाशन का स्वर्णकलश चढ़ेगा और जनमानस में साम्प्रदायिक दुराग्रहों के कारण फैलती आई पुरानी भ्रान्तियाँ दूर होंगी, साथ ही नयी भ्रान्तियों की अमुक सीमा तक यथोचित रोक-थाम होगी।
जब तक उपर्युक्त पवित्र ब्रह्म बेला न आए, तब तक हमारे योग्य स्नेही साथी इस दिशा में जो भी एकांगी प्रयत्न कर रहे हैं, उनका हृदय से स्वागत है। एकान्त नकार से चलो कुछ हो तो रहा है।
एक ऐसे ही धन्यवाद के पात्र हैं प्रस्तुत में जैनधर्म दिवाकर महान् आचार्यदेव महामहिम पूज्य श्री आत्माराम जी म० के प्रिय शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी । पण्डितजी विद्वान् हैं, शास्त्राभ्यासी हैं, फिर भी इतने विनम्र एवं निरभिमान कि देखें तो आश्चर्य होता है। अपने स्वर्गीय गुरुदेव के समान ही आप भी नियमित स्वाध्याय में अनुरत रहते हैं। इधर-उधर के प्रपंचों से आपको कुछ लेना-देना नहीं
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