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________________ ( २७ ) अन्तर्मुखी होकर भी बहिर्म खी मनोवृत्तियाँ हो जाएं या सदैव बहिर्मुखी मनोवृत्तियाँ बनी रहें वह अज्ञान या पर-समय कहलाता है। प्रस्तुत शास्त्र में स्व-समय को समझाने के लिए पर-समय और पर-समय को समझाने के लिए स्व-समय का निर्देश किया गया है। सत्य को समझने के लिए असत्य को और असत्य को समझने के लिए सत्य को समझना आवश्यक है। प्राचीन और अर्वाचीन व्याख्याएँ प्रस्तुत शास्त्र पर सर्वप्रथम भद्रबाहु स्वामी ने प्राकृत भाषा में नियुक्ति लिखी। शास्त्र और नियुक्ति दोनों का आधार लेकर आचार्य शीलांक ने संस्कृत भाषा में बृहद्वत्ति लिखी, जिनका कालमान नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरि से पहले का माना जाता है। आचार्य अमोलक ऋषि जी म. ने हिन्दी में संक्षिप्त व्याख्या लिखी। आचार्य जवाहरलाल जी म० की ओर से भी चार भागों में सूत्र और बृहद्वत्ति का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित किया गया। 'सूत्रकृतांग' के हिन्दी व्याख्यासहित जितने भी संस्करण आजतक प्रकाश में आए हैं उन सबमें जो पुस्तक आपके हाथों को सुशोभित कर रही है यह अपने आप में अद्वितीय एवं अपूर्व है । अनुवादक और सम्पादक अनुवादक दुभाषिये का काम करता है और सम्पादक विषय तथा भाषा को परिमार्जित करके सर्वजनग्राह्य साहित्य की रचना करता है। इस शास्त्र के अनुवादक जैन रत्न, पण्डितरत्न, उपप्रवर्तक स्वनामधन्य श्री हेमचन्द्र जी म० हैं और ये श्रमण संघ के प्रथम पट्टधर महामहिम साहित्यरत्न, जैनागम, रत्नाकर, आचार्यप्रवर पूज्य श्री आत्माराम जी म० के शिष्य हैं। संस्कृत और प्राकृत भाषा के धुरंधर विद्वान हैं। इनके सुशिष्य नवयुग सुधारक, जैनविभूषण भण्डारी श्री पदमचन्द जी हैं जिन्होंने आचार्य श्री आत्माराम जी म० की बहुत वर्षों तक अथक सेवाएँ की, फलस्वरूप आपके मन में एक तरंग उठी, वह थी भगवद्वाणी की सेवा या प्रवचनवत्सलता। उनकी इस भावना को साकार बनाने के लिए प्रकृति देवी ने एक होनहार, प्रभावक, तेजस्वी, मनीषी, प्रवचनभूषण मुनिरत्न श्री अमरमुनि जी को शिष्य रूप में आपको प्रदान किया। प्रस्तुत शास्त्र का अत्युत्तम सम्पादन करके प्रवचनभूषण श्री अमरमुनि जी ने समाज का जो कल्याण किया है वह समस्त जैन तथा जैनेतर विद्वानों के लिए उपादेय होगा ऐसी हमारी कामना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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