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मंगल-भावना
उपाध्याय श्री फूलचन्द्र जी महाराज 'श्रमण' आगम-शास्त्र श्रमण संस्कृति के मूलाधार होने के कारण हमारे श्रद्धा के केन्द्र हैं। पंच परमेष्ठी और नवतत्त्वों का बोध, स्व-पर का भान, दुःखों के मूल कारणों से निवृत्ति, परम-पद-प्राप्ति के उपायों की खोज हमें आगम-शास्त्र साहित्य में ही उपलब्ध होती है। साधक के गुण-दोषों का प्रतिबिम्ब ये आगम-शास्त्र ही हैं। आज के युग में यदि किसी को भगवान के दर्शन करने हों तो इन्हीं के माध्यम से हो सकते हैं।
आगम----जो ज्ञान-स्रोत भगवान महावीर से प्रस्फुटित हुआ, वह श्रुतज्ञान गणधरों, आचार्यों, उपाध्यायों एवं बहुश्रुत मुनियों के माध्यम से अब तक चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा। यही श्रुत ज्ञान आगम कहलाता है।
___ शास्त्र -- लोक में विभिन्न प्रकार के शास्त्र हैं । जैसे --कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, आयुर्वेदिकशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुकलाशास्त्र, न्यायशास्त्र, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, विज्ञानशास्त्र, शब्दशास्त्र, धर्मशास्त्र आदि । इन सब में आगम-शास्त्र का स्थान सर्वोपरि है। जीवाजीव का बोध करवाकर आध्यात्मिक आनन्द देने वाला केवल आगम-शास्त्र ही है।
__ आगम-शास्त्रों में अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान की मुख्यता है। इसका स्थान उसी तरह उच्च है जैसे शरीर में उत्तम अंगों का। अंगप्रविष्ट शास्त्रों की गणना कुल १२ है, उनमें 'सूत्रकृताङ्ग' या 'सू यगडंग' का क्रम से दूसरा स्थान है । सूयगडंग
धर्म और दर्शनशास्त्रों में 'सूयगडंग' का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसके संस्कृत भाषा में तीन रूप बनते हैं--सूतकृतांग, सूत्रकृतांङ्ग और सूचाकृताङ्ग। जो तीर्थंकरों द्वारा अर्थरूप में उत्पन्न होकर गणधरों द्वारा ग्रन्थरूप में रचा गया है उस अंगशास्त्र को 'सूतकृत' कहते हैं। सूत्र के अनुसार जिससे तत्त्वार्थ का बोध किया जाता है उस अंग शास्त्र को 'सूत्रकृत' कहते हैं। स्व-समय और पर-समय को सूचित करने वाला अंगशास्त्र सूचाकृत कहलाता है। ये तीनों अर्थ प्रस्तुत शास्त्र में घटित होते हैं। इस शास्त्र की भाषा और विषय दोनों जटिल हैं। स्व-समय और पर-समय सिद्धान्त को मूलतः अलग-अलग समझना ही सम्यग्ज्ञान है। साधक की मनोवृत्ति जिस ज्ञान से अन्तर्मुखी हो जाय वही स्व-समय है। जिस ज्ञान से
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