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________________ समय : प्रथम अध्ययन--चतुर्थ उद्देशक २४५ स्व शिष्यों की आत्मरक्षा करने में समर्थ नहीं हैं । (बाला) क्योंकि ये स्वयं अज्ञानी हैं— मुक्ति के वास्तविक पथ से अनभिज्ञ हैं, (पंडियमागिणो) तत्वज्ञान से रहित होने पर भी अपने आपको पण्डित-~-तत्त्वज्ञ मानते हैं । (पुवसंजोगं हिच्दा) ये लोग अपने बन्धुबान्धव, धनसम्पत्ति, गृहस्थ के आरम्भसमारम्भयुक्त कार्यों का पूर्वसम्बन्ध (पूर्वपरिग्रह) छोड़कर भी (सिया; अन्य आरम्भ-परिग्रह में आसक्त हैं, अथवा पुनः प्रबल मोहपाश में बँध गये हैं। (कि वोवएसगा) क्योंकि ये लोग गृहस्थ के सावद्यकृत्यों का उपदेश देते हैं । भावार्थ ये अन्यदर्शनी लोग काम-क्रोध आदि से बुरी तरह पराजित हैं, अतः शिष्यो ! ये लोग शरण के योग्य नहीं हैं, क्योंकि ये न तो अपनी आत्मरक्षा कर सकते हैं, और न दूसरों की रक्षा करने में समर्थ हैं। ये लोग स्वयं अज्ञानी हैं, तत्वज्ञानशून्य होने पर भी अपने आपको ये पण्डित मानते हैं। ये अपने बन्धुवान्धव, धनसम्पत्ति या गृहस्थयोग्य आरम्भ परिग्रह से सम्बन्ध त्याग करके भी गृहस्थ के आरम्भ-परिग्रहयुक्त सावद्यकृत्यों का उपदेश देते हैं। व्याख्या पूर्वयोगत्यागी भी सावद्योपदेशक होने से अशरण्य हैं इस गाथा में शास्त्रकार उन गृहत्यागियों को आड़े हाथों ले रहे हैं, जो घरबार, कुटुम्ब-कबीला, धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, आरम्भ-समारम्भ आदि पूर्वगृहसम्बद्ध संयोगों को सर्वथा छोड़छाड़कर संन्यासो-त्यागी बन गये; फिर भी पुनः उन्हीं गृहस्थ के आरम्भ-परिग्रहसम्बद्ध सावद्यकृत्यों का उपदेश देते हैं। अर्थात वे अन्यतीर्थी धनधान्य, बन्धुबान्धव, आरम्मपरिग्रह आदि पूर्वसम्बन्धों को छोड़कर अपने आपको निःसंग और प्रबजित कहते हुए मोक्ष के लिए उद्यत हुए हैं, लेकिन जिन सावद्यकृत्यों को उन्होंने त्याज्य समझकर छोड़ा था, उन्हीं का उपदेश अपने भक्तों को देने लगे। इसे पकाओ, इसे पीसो, कूटो, इसे तलो, भूनो; अथवा इस जमीन को ले लो, इस प्रकार व्यापार करके रुपये कमा लो, अपना यह विशाल मकान बनवा लो, इत्यादि रूप से उन गृहस्थों को समारम्भ, आरम्भ तथा परिग्रहरूप सावध प्रवृत्तियों का उपदेश देते हैं। उनका यह कार्य 'आये थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास' के समान है। अत: वे प्रव्रज्याधारी होते हुए भी गृहस्थों से भिन्न नहीं, अपितु उनके समान ही समस्त सावधव्यापारों के प्रवर्तक, अनुमोदक एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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