________________
प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक ( स्व-पर- समयवक्तव्यता )
तृतीय उद्देशक में अन्यतीर्थियों द्वारा प्ररूपित मिथ्याग्रहरूप विचारधारा एवं आचारपद्धति का विभिन्न पहलुओं से विवेचन किया गया है। इस चतुर्थ उद्देशक में भी तथाकथित अन्यतीर्थियों की आचार-विचार-धारा का विवेचन करते हुए निर्ग्रन्थ श्रमण के कर्तव्यों का संक्षेप में निर्देश किया गया है। साथ ही प्रथम अध्ययन के प्रारम्भ में बोध प्राप्त करने और बंधन तोड़ने का तथा बंधन के स्वरूप जानने का जो महत्त्वपूर्ण मार्गनिर्देश किया गया है, उसी के सन्दर्भ में इस चतुर्थ उद्देशक में भी विभिन्न अन्यमतवादियों की विचारधारा की भली-भांति जानकारी तथा उनमें जो कर्मबन्धनहेतुभूत विचार या आचार हैं, उन्हें छोड़ने और कर्मबन्धन को काटने में कारणभूत जो विचार-आचारधारा है, उसे स्वीकार करने का कर्तव्यबोध कूट-कूट कर भरा है । अतः अध्ययन के नाम के अनुरूप इस उद्देशक में भी स्व-पर- समय का विवेचन किया गया है । सर्वप्रथम अन्यतीर्थिक तथाकथित संन्यासियों का गृहस्थ के सावध कर्मों के उपदेशरूप शिथिलाचारधारा का विवेचन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं—
मूल पाठ
एए जिया भो न सरणं, बाला पंडियमाणिणो 1 हिच्चा णं पुव्वसंजोगं, सिया किच्चोवएसगा || १ || संस्कृत छाया
एते जिताः भोः ! न शरणं बालाः पण्डितमानिनोः । हित्वा तु पूर्वसंयोगं, सिताः कृत्योपदेशकाः || १ ||
अन्वयार्थ
( भो ) हे शिष्यो ! ( एते) ये पूर्वोक्त अन्यतीर्थी ( जिया) काम-क्रोध आदि से जीते जा चुके ( पराजित ) हैं. अत: ( न सर ) शरण लेने योग्य नहीं हैं, अथवा
२४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org