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समय : प्रथम अध्ययन-तृतीय उद्देशक
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सिद्धि का कार्य-कारणभाव सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। मतमोह कितना प्रबल होता है. यह इस बात से प्रमाणित होता है। क्योंकि अष्टसिद्धियाँ तो पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं, उनका अष्टकर्मों के सर्वथा क्षय से प्राप्त होने वाली सिद्धि (मुक्ति) से कोई सम्बन्ध नहीं है । वह अष्टविधसिद्धि मुक्तिरूपसिद्धि का कारण नहीं बन सकती । और न ही भौतिक आरोग्य प्राप्त करने से लोकोत्तर नीरोगता -समस्त दुःख-द्वन्द्वों से रहित होने की स्थिति प्राप्त होती है । बल्कि भौतिक अष्टसिद्धियों से या रसायनसिद्धि से कई बार मनुष्य ऋद्धि, रस और लाता के गर्व में या लाभमद में आसक्त होकर नये अशुभकर्मों का बन्ध कर लेता है, साथ ही अपनी अज्ञानदशा को छिपाने के लिए वह माया और मान कषाय का सेवन करता है, एवं मत के मिथ्याआग्रहरूप मिथ्यात्व से ग्रस्त हो जाता है, इन कषाय और मिथ्यात्व के फलस्वरूप घोर अशुभकर्मबन्ध कर लेता है ।।
इसी बात को इस तृतीय उद्देशक का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार अगली गाथा में कहते हैं
मूल पाठ असंवुडा अणादीयं भमिहिति पुणो पुणो । कप्पकालमुवज्जति ठाणा आसुरकिबिसिया ।।१६।।
संस्कृत छाया असंवृता अनादिकं भ्रमिष्यन्ति पुन: पुन: । कल्पकालमुत्पद्यन्ते स्थाना आसुरकिल्विषिका: ॥१६॥
अन्वयार्थ (असंबुडा) इन्द्रियसंयम से रहित असंयमी वे अन्यदर्शनी (अणादीयं) अनादि ----आदिरहित संसार में (पुणो पुणो) बार-बार (भनिहिति) भ्रमण करेंगे । तथा (कप्पकालं) कल्पकालपर्यन्त चिरकाल तक, (ठाणा आसुरकिग्विसिया) असुर (भुवनपति देव के) स्थानों में किल्विषी देवरूप में (उवज्जति) वे उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ मन और इन्द्रियों पर संयम से रहित वे पूर्वोक्त मतवादी लोग इस अनादि संसार में बार-बार भ्रमण करते रहेंगे। तथा बालतप के प्रभाव से वे दीर्घकाल तक असुर (भूवनपति देवों के) स्थानों में किल्विषी (नीचजातीय) देव के रूप में पैदा होते हैं ।
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