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समय : प्रथम अध्ययन --- तृतीय उद्देशक
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तड़फ नहीं होगी, तब तक कर्मक्षय न होने से शुद्धि नहीं हो सकेगी, शुद्धि के बिना मोक्ष नहीं हो सकता । अतः यह मत ही युक्तिसंगत नहीं है ।
पुढो पावाडया सवे अक्खायारो सयं सयं - यहां एक शंका होती है कि जब वे अन्यतीर्थी कार्यकारणभाव से अनभिज्ञ हैं, तब वे चुप क्यों नहीं बैटते ? इसके उत्तर में स्वयं शास्त्रकार इस पंक्ति को प्रस्तुत करते हैं-- ' पुढो पावाउया सव्वे .... वे सब मतवादी इस प्रकार की ऊटपटांग बकवास करने वाले हैं, प्रावादक (अधिक बोलने वाले = वाचा ) हैं । तथा वे अपने - अपने सिद्धान्तों की सत्यता की डींग हाँकते हैं, अपने-अपने सिद्धान्त का अतिशयोक्तिपूर्ण बखान करते हैं । इससे यह भी प्रतीत होता है कि वे शुभ अनुष्ठान में रत नहीं रहते ।
अब आगामी गाथा में शास्त्रकार उन मतवादियों की एक अपने-अपने मत के अनुसार अनुष्ठान करने से मोक्षप्राप्ति की मान्यता का दिग्दर्शन कराते हैं
मूल पाठ
सएसए उट्ठा सिद्धिमेव न अन्नहा । अहो इहेव वसवत्ती सव्वकामसमप्पिए ॥१४॥
संस्कृत छाया
स्वके स्वके उपस्थाने सिद्धिमेव नान्यथा । अथ इहैव वशवर्ती सर्वकामसमर्पितः
अन्वयार्थ
(सएसए) अपने - अपने ( उवठाण एव) अनुष्ठान में ही (सिद्धि) सिद्धि = मुक्ति होती है, (न अन्ना) अन्यथा नहीं होती । ( अहो ) मोक्षप्राप्ति से पूर्व ( इहेव ) इसी लोक - जन्म में ही ( वसवत्ती) जितंन्द्रिय हो, अथवा हमारे मत के अधीन हो, वह (सव्वकामसमप्पिए) सर्व कामनाओं से सम्पन्न - परिपूर्ण होता है ।
।।१४।।
भावार्थ
विभिन्न मतवादियों का कथन है कि अपने - अपने मत में प्ररूपित अनुष्ठानों से ही मनुष्य सिद्धि-मुक्ति को प्राप्त कर सकता है, इसके सिवाय अन्य किसी प्रकार से नहीं । मोक्षप्राप्ति से पूर्व मनुष्य को जितेन्द्रिय या दीक्षागुरु के अनुशासन में रहना चाहिए, ऐसे व्यक्ति की सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं ।
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