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सूत्रकृतांग सूत्र
इससे ध्वनित होता है कि ऐरो लोग जो अपने शुद्ध कर्ममुक्त निष्पाप आत्मा को केवल मामूली से कारण -. शासनमोह को लेकर पुनः इस संसार में लौट आने के विचार के हैं, वे अपने ही हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं। ऐसे लोग आत्मा के प्रति द्रोही हैं, वे ब्रह्म-शुद्ध-आत्मा में या परमात्मभाव में स्थित नहीं हैं, आत्मज्ञानी या आत्मसुधारक होने का कोरा दिखावा करते हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने ऐसे अपनी झोंपड़ी जलाकर दूसरे की आग बुझाने वाले परार्थशूर आत्मपतनकर्ता व्यक्तियों के लिए कहा है.--'बंभचेरे ण ते वसे ।' अर्थात् ब्रह्म यानी आत्मा की चर्या - सेवा या परमात्मविचार में स्थित - टिके हुए नहीं हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ यदि यहाँ स्पर्शेन्द्रियसंयम या कुशीलसेवन का त्याग करेंगे तो वह असंगत होगा, क्योंकि तब इसका अर्थ होगा--- ऐसे पुरुष ब्रह्मचारी नहीं हैं, अर्थात् व्यभिचारी हैं, शास्त्रकार के मुख से ऐसा कथन उन पर मिथ्या आक्षेप होगा, मिथ्यादोषारोपण होगा। इस लिए उपर्युक्त अर्थ ही यहाँ संगत होगा । द्रव्यब्रह्मचर्य में स्थिर होते हुए भी वे तथाकथित ज्ञानी पुरुष भावब्रह्मचर्य-आत्मा-परमात्मा में विचरण चर्या) से या निवास से वे कोसों दूर हैं। यही अर्थ प्रसंगवश युक्तिसंगत होगा। फिर उन तथाकथित मुक्त आत्माओं के पुन: संसार में आने के जो कारण बताये गये हैं, वे भी निःसार हैं।' जब सारे संसार को मैत्रीभाव -- आत्मौपम्यभाव से मुक्त शुद्ध आत्मा (जीव) देखने लग जाता है, तब वहाँ अपनापन या परायापन कहाँ रह जाता है ? राग-द्वेष या 'यह मैं हूँ. यह मेरा है, इस प्रकार की परिग्रहवृत्ति (ममता) उसमें कैसे रह सकती है ? क्योंकि उनकी परिग्रहवृत्ति (ममता) तो सर्वथा नष्ट हो चुकी है। इसके अतिरिक्त जो समस्त कर्मकलंक को नष्ट कर चुके हैं, तथा समस्त पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जानते हैं, जो कृतकृत्य हो चुके हैं, स्तुति और निन्दा में जो सम हैं, ऐसे निष्पाप शुद्ध आत्मा में रागद्वेष होना कदापि सम्भव नहीं है। और रागद्वेष न होने से उनको कर्मवन्धन कैसे हो सकता है ? और कर्मबन्धन न होने से वे मुक्तजीव फिर संसार में आ ही कैसे सकते हैं ?
_ 'अपने तीर्थ (संघ) की पूजा और तिरस्कार देखने से मुक्त जीव को कर्मबन्धन होता है, यह कथन ही असंगत है। मान लो, उन मुक्त जीवों के भूतपूर्व संघ की उन्नति अथवा अवनति हो रही हो तो वे तथाकथित मुक्तजीव कैसे रोक सकेंगे ? कोई दूसरा किसी के कर्मों का क्षय या उपचय कैसे कर सकेगा? जब तक उन-उन जीवों (संघ के सदस्यों) में स्वयं कर्मक्षय करने, कर्मरोध करने की रुचि एवं
१. गीता में भी कहा है- 'तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।
तुल्यनिन्दास्तुतिमौ नी, सन्तुष्टो येन केन चित् ॥'
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