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समय : प्रथम अध्ययन-तृतीय उद्देशक
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कर्मबीज बिलकुल जल चुके, वह कर्मरहित निर्मल आत्मा पुनः कर्मयुक्त हो ही नहीं सकता । जैसे कि तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में कहा है ---
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः ।
कर्मबीजे तथा दग्धे, न बोहति भवांकुरः ॥' "जिस तरह बीज के जल जाने पर उससे अंकुर का उत्पन्न होना अत्यन्त असम्भव है, उसी तरह कर्मरूपी बीज के भस्म हो जाने पर संसाररूप अंकुर का फूटना-संसार में पुन: जन्म लेना अत्यन्त असम्भव है।"
वास्तव में विचार किया जाय तो ऐसे पुनः अवतार लेने (संसार में आगमन करने) वाले तथाकथित ज्ञानियों को मोक्षगामी ही नहीं कहना चाहिए, क्योंकि उन्होंने कर्ममल का समूल नाश नहीं किया, अन्यथा, पुन: अवतार लेना उपर्यक्त युक्ति के अनुसार असम्भव था । श्री सिद्धसेन दिवाकर ने संसार में पुनः अवतार लेने वाले तथाकथित तीर्थंकरों की प्रबल मोहवृत्ति को प्रकट करते हुए कहा है---
दग्धेधन पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारतिभीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वयं कृतभवश्च (कृततनुश्च ) परार्थशूरस,
स्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम ॥२ हे वीतराग प्रभो ! आपके शासन (संघ) को ठुकराने वाले व्यक्तियों पर मोह का प्रबल साम्राज्य छाया हुआ है। वे कहते हैं कि जिन आत्माओं ने कर्मरूपी ईंधन को जलाकर संसार का नाम कर दिया है, वे भी मोक्ष को छोड़कर फिर से संसार में अवतार (जन्म) लेते हैं। मुक्त होकर भी निःशंक शरीर धारण करते हैं। वे इतनी सीधी सी बात को नहीं समझते कि जैसे जो काष्ठ जल जाता है, वह फिर नहीं जलता है, वैसे ही संसार को मंथन करके जो जीव मुक्त हो गया है, वह फिर संसार में कैसे आ सकता है ? परन्तु अन्यतीर्थी लोग मुक्त होकर स्वयं संसार में आना मानते हैं, और दूसरों को मुक्ति दिलाने में शूरवीर बनते हैं। तात्पर्य यह है कि वे अपनी आत्मा का सुधार यानी उसे पूर्णकर्ममुक्त करने में असफल रहे हैं, पर वे परोपकार के लिए संसार में अवतार लेने की शूरता दिखाते हैं। यही तो उन पर मोहनीयकर्म की प्रबल छाप है, कि वे अपना कल्याण तो कर ही नहीं पाये, लेकिन रट लगाये हुए हैं--परार्थ की। १. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य, अ० १०, सू० ७ २. सिद्धसेनकृत द्वात्रिंशद्वात्रिशिका
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