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सूत्रकृतांग सूत्र
अब उन्हीं मतवादियों की इस मान्यता को दोषयुक्त सिद्ध करके शास्त्रकार सम्यग्दृष्टि एवं चारित्रवान पुरुषों को उनसे बचने की प्रेरणा देते हैं
मूल पाठ एताणुवीति मेहावी बंभचेरे ण ते वसे । पुढो पावाउया सव्वे, अक्खायारो सयं सयं ॥१३॥
संस्कृत छाया एताननुचिन्त्य मेधावी ब्रह्मचर्ये न ते वसेयुः । पृथक् प्रावादुकाः सर्वे, आख्यातार: स्वक स्वकम् ।।१३।।
अन्वयार्थ (मेहावी) बुद्धिमान साधक (एताणुवीति) इन पूर्वोक्त वादियों के सम्बन्ध में वस्तुस्व रूप के अनुसार विचार करके मन में यह तय करे कि (ते) वे अन्यतीथिक (बंभचेरे) आत्मा की चर्या में-आत्मभावों के विचरण में (ण) नहीं (वसे) स्थित है। (सव्वे पावाउया) वे सभी पक्के बातूनी-प्रापादुक हैं (पुढो) वे अलग-अलग (सयं सयं) अपने-अपने सिद्धान्त को (अक्खायारो) बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं।
__भावार्थ बुद्धिशाली साधक इन पूर्वोक्त अन्यतीथिकवादियों के सम्बन्ध में वस्तुस्वरूप के अनुकूल विचार करके मन में यह निश्चित कर ले कि वे पूर्वोक्त अन्यतीथिक मतवादी आत्मा की चर्या-सेवा या आत्मभावों के विचरण में स्थित नहीं है । वे सभी पक्के एवं ऊँचे दर्जे के बातूनी या बकवास करने वाले (प्रावादुक) हैं। ये अलग-अलग अपने-अपने सिद्धान्त को बढ़ा-चढ़ाकर कहते हैं ।
व्याख्या
अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग !
इस गाथा में पूर्वोक्त मतवादियों का बखिया उधेड़ते हुए दो बातें शास्त्रकार ने सूचित की हैं--(१) आत्मविचरण से रहित अन्यतीथिकों से सावधान रहने की और (२) सभी मतवादियों की अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग अलापने की। परन्तु इन सब का मुक्तजीवों के विषय में संसार में पुनरागमन का जो सिद्धान्त है, वह युक्तिसंगत नहीं हैं; क्योंकि मुक्ति में गये हुए जीव का पुनः रागद्वेषयुक्त या कर्मरज से लिप्त होना कैसे सिद्ध हो सकता है ? जिसके कमरज सर्वथा झड़ गये या
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