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सूत्रकृतांग सूत्र तथा वह ब्रह्मा जब तक अण्डा बनाता है, तब तक वह इस लोक को ही क्यों नहीं बना देता ? अत: युक्तिविरुद्ध अण्डे की टेढ़ी-मेढ़ी कष्टदायी कल्पना से क्या मतलब? इसलिए ये सब ऊटपटाँग कल्पनाएँ प्रमाणबाधित होने से असत्य हैं।
ब्रह्मा द्वारा सृष्टिरचना की मान्यता भी गलत- यदि यह कहा जाय कि ब्रह्मा अण्डे के बिना ही सृष्टि उत्पन्न करता है । जैसे कि उन्होंने कहा है
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत, बाहू राजन्यः कृतः ।
उरू तदस्य यवैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत । अर्थात्--ब्रह्माजी के मुख से ब्राह्मण, बाह से क्षत्रिय, उरू से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।
यह कथन भी अनुभवविरुद्ध होने से मिथ्या है। क्योंकि आज तक मुख से किसी की उत्पत्ति नहीं देखी गई। यदि ऐसा होने लगेगा तो ब्राह्मणादि वर्गों का परस्पर भेद नहीं रहेगा, क्योंकि वे सभी (वर्ण के) लोग एक ही ब्रह्मा से उत्पन्न होंगे। तथा ब्राह्मणों में भी कठ, तैत्तिरीयक और कलाप आदि भेद भी नहीं रहेगा, क्योंकि सभी एक ही ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होंगे। फिर तो ब्राह्मणों में उपनयन, विवाह आदि संस्कार नहीं हो सकेंगे। ऐसी दशा में बहन के साथ ही विवाह होने लगेंगे । इस प्रकार के अनेक दोष होने के कारण ब्रह्मा के मुख आदि से सृष्टि की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है ।
विष्णु द्वारा सृष्टि रचना का मत भी युक्तिहीन--विष्णु द्वारा सृष्टिरचना का मत भी युक्तिसंगत नहीं है । विष्णुकृत जगत् मानने वालों से पूछा जाय कि सृष्टि रचने से पहले जब कुछ भी नहीं था, तो विष्णु कहाँ रहे ? यदि कहें कि जल था, तो प्रश्न होता है, जल को किसने बनाया ? यदि कहें कि उसे किसी ने नहीं बनाया, वह तो स्वयमेव अनादिकाल से निर्मित है, तब पृथ्वी आदि समस्त पदार्थों को अनादिकाल से स्वयंनिर्मित क्यों नहीं मान लिया जाए ? विष्णु ने तपस्या की इससे मालूम होता है, विष्णु कर्मविशिष्ट और शक्तिविहीन थे, इसलिए कर्मक्षय करने एवं शक्ति सम्पादन करने के लिए उन्होंने तप किया। ऐसी दशा में विष्णु भी हमारे ही जैसे कर्मविशिष्ट, अल्पज्ञ और असमर्थ सिद्ध होंगे।
यह एक अनुभवयुक्त तथ्य है कि कोई भी वस्तु केवल इच्छा करने मात्र से या ज्ञानमात्र से उत्पन्न नहीं हो जाती। उसके लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता भी होती है। थोड़ी देर के लिए हम यों मान भी लें कि विष्णु में सृष्टि रचना के लिए इच्छा, ज्ञान और प्रयत्न तीनों थे, तो भी उपादानकारण के बिना कार्य कदापि नहीं
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