SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय : प्रथम अध्ययन तृतीय उद्देशक २१५ एवंविहे जगम्भि पेच्छइ नग्गोहपायवं सहसा । मंदरगिरिव तुंगं, सहासमुदं च विच्छिन्नं खंधमि तस्स सयणं, अच्छइ तहिं बाल ओमणभिरामो । संविद्धो मुद्धहियओ मिउकोमलकुचियकेसो ॥४॥ हत्थो पसारिओ से महरिसिणो एह अत्थ भणिओ य । संधं इमं विलग्गसु, मा मरिहिसि उदयबुड्ढीए ॥५|| तेण य घेत्त हत्थे उ मोलिओ से रिसी तओ तस्स । पेच्छइ उदरंमि जयं ससेलवणकाणणं सव्वं ॥६॥ अर्थात् --सारा संसार जल के बढ़ जाने के कारण एक जलमय महसमुद्र हो गया। उस अथाह जलप्रवाह में लहरों की परम्परा के साथ बहते हुए मार्कण्ड ऋषि ने इस जगत् को त्रस, स्थावर, देव, मानव और तिर्यञ्चयोनि के जीवों को नष्ट हो जाने से महाभूतों से रहित गह्वर रूप एक महासमुद्र के रूप में देखा। साथ ही ऐसे प्रलयमय जगत् में सहसा उन्हें एक विशाल वटवृक्ष नजर आया, जो मंदराचल के समान ऊँचा और महासागर के समान विस्तीर्ण था। फिर उन्होंने उसके स्कन्ध पर एक मनोहर नयनाभिराम बालक को सोये हुए देखा, जिसका हृदय शुद्ध था, जो संवेदनशील (भाव क) था। उसके बाल अत्यन्त कोमल, चिकने और धुंघराले थे। उसने महर्षि की ओर हाथ फैलाया और कहा - "यहाँ आ जाओ। इस स्कन्ध को पकड़ लो। इससे तुम जल के बढ़ जाने पर भी मरोगे नहीं।" इसके बाद उसने (विष्णु ने) महर्षि का हाथ पकड़ कर अपने साथ मिला लिया। उस समय मार्कण्ड ऋषि ने उस बालक विष्णु के उदर में पर्वतों, वनों और काननों सहित सारे जगत् को देखा। तत्पश्चात् सृष्टि रचना के समय विष्णु ने सबकी रचना की। यह है, विष्णु द्वारा जगत् की रचना की रामकहानी । ___ 'मारेण संथया माया'-... इस प्रकार वे विष्णु को जगत्कर्ता स्वीकार कहते हैं। लेकिन फिर वे कहते हैं कि जब विष्णु लोक को उत्पन्न करके उसके भार से भयभीत हुआ, तब उसने जगत् का संहार करने वाले मार= यमराज -- मृत्यु की रचना की। यमराज ने माया बनाई। वास्तव में वह माया विष्णु की ही थी,२ उस माया से जगत् को सम्मोहित करके यमराज जीवों को यथासमय मारने का काम करता है। यमराज की माया से इस प्रकार विनाश के कारण ही यह लोक नित्य १. 'द्वितीयाद् वै भयं भवति' ---उपनिषद् २. 'विष्णोर्माया भगवती, यया सम्मोहितं जगत्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy