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व्याख्या
जगत् की रचना : विष्णु और माया से
सभुणा कडे लोए- इस गाथा में विष्णुकर्तृत्ववाद एवं सायाकर्तृत्ववाद का स्वरूप बताया है । कई मतवादियों खासकर वैष्णवों का कहना है कि यह जगत् विष्णु द्वारा रचित है। उन्हीं की लीला है । स्वयम्भू शब्द ब्रह्मा के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, और विष्णु के अर्थ में भी । ब्रह्मा ने यह जगत् बनाया है, इस सम्बन्ध में हम पाँचवीं गाथा में विवेचन कर चुके हैं । यहाँ प्रसंगवश विष्णु अर्थ में स्वयम्भू शब्द है । उनका मत इस प्रकार है जो अपने आप होता है, उसे स्वयम्भू कहते हैं, ऐसा स्वयम्भू विष्णु है ।" वह पहले एकाकी ही थे, अकेले ही रमण करते थे । उन्होंने दूसरे की इच्छा की । उनकी इस चिन्ता के पश्चात् ही दूसरी शक्ति उत्त्पन्न हुई और उस शक्ति के होने के बाद ही इस जगत् की सृष्टि हुई ।
कई दार्शनिक इस जगत् को विष्णुमय मानते हैं । संसार में विष्णु सर्वत्र व्यापक हैं । इस सम्बन्ध में वे प्रमाण प्रस्तुत करते हैं
"जले विष्णुः स्थले ज्वालामाला कुले विष्णु, पृथिव्यामप्यहं पार्थ ! सर्वभूतगतश्चाहं,
सूत्रकृताग सूत्र
विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके :
सर्व विष्णुमयं जगत् ॥ १ ॥ वायवग्नौ जलेऽस्म्यहम् ।
तस्मात्सर्वगतोऽस्म्यहम् ॥२॥
अर्थात् - 'जल में विष्णु है, स्थल में विष्णु है, पर्वत के मस्तक पर विष्णु है, अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त स्थल में विष्णु है । सारा जगत् विष्णुमय है । 'हे अर्जुन ! मैं पृथ्वी में भी हूँ, वायु, अग्नि और जल में भी मैं हूँ, और समस्त प्राणियों में मैं हूँ । इसलिए मैं सारे संसार में व्याप्त हूँ ।'
विष्णु जगत् की रचना कैसे और कब से करते हैं ? इस सम्बन्ध में मार्कण्ड ऋषि की एक कथा मिलती है
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सो किल जलय समत्येणुदएणेगन्नवम्मि
वीती परंपरेण घोलतो
सो किल पेच्छ सो तस्थावरपणट्ठ सुरनरतिरिक्खजोणीयं । एकन्नवं जगमिणं महभूयविवज्जियं गुहिरं ||२||
लोगम्सि |
उदयमज्झमि ॥ १ ॥
१. 'एकोऽहं बहुस्यामः ' 'तस्मादेकाकी न रमते' । ये श्रुतिवचन प्रमाण हैं । २. कहीं कहीं यह पाठ भी है - " वनस्पतिगतश्चाहं सर्वभूतगतोऽप्यहम् ।'
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