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समय : प्रथम अध्ययन - तृतीय उद्देशक
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कोई यह न समझ ले कि केवल पहाड़, समुद्र, रेगिस्तान आदि जड़ पदार्थरूप ही लोक है, किन्तु जड़-चेतनात्मक जीव और अजीव दोनों प्रकार के पदार्थों से यह विश्व (लोक) भरा हुआ है । धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा पुद्गलरूप अजीव द्रव्यों से तथा जीव द्रव्यों (एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक ) से यह जगत् परिपूर्ण है । इतना ही नहीं, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से भी युक्त है । कोई सुखी है, कोई दुःखी है, कोई धनी है, कोई निर्धन है, इत्यादि अनेक विषमताओं से युक्त जगत् भी ईश्वर या अन्य किसी शक्ति द्वारा रचित है । "
अब लोक की रचना के सम्बन्ध में विष्णुकर्तृत्ववाद तथा मारकर्तृत्ववाद का दिग्दर्शन अगली गाथा में कराते हैं
मूल पाठ सयंभुणाकडे लोए, इतिवृत्तं महेसिणा । मारेण संया माया, तेण लोए असासए ॥७॥ संस्कृत छाया
स्वयम्भुवा कृतो लोक इत्युक्त महर्षिणा । मारेण संस्तुता माया, तेन लोकोऽशाश्वतः ||७||
अन्वयार्थ
( सयंभुणा ) स्वयम्भू = विष्णु ने (लोए) यह सुख-दुःख समन्वित जीवाजीवयुक्त लोक ( कडे ) बनाया है, (इति) ऐसा (महेसिणा ) हमारे महर्षि ने (बुत्त ) कहा है । ( मारेण ) यमराज ने ( माया ) यह माया ( संथया) रची है, (तेण ) इसी कारण ( लोए) यह लोक ( असासए) अशाश्वत = अनित्य है ।
भावार्थ
कई अन्यतीर्थीजन कहते हैं कि स्वयम्भू (विष्णु) ने लोक बनाया है, ऐसा हमारे महर्षि ने कहा है । तथा यमराज ने माया रची है, इसी कारण यह लोक अनित्य - परिवर्तनशील है, नाशवान है; अथवा परमार्थतः सत्य नहीं है ।
१. आजकल ईश्वर को जगत् का कर्ता मानने वाले वैदिकधर्मसम्प्रदायों के अतिरिक्त इस्लामधर्म, ईसाईधर्म आदि भी हैं । परन्तु वे भी इस बात को युक्तिहीन श्रद्धापूर्वक मानते हैं, उनके पास कोई विशेष तर्क या युक्तियाँ नहीं हैं ।
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