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________________ २१२ सूत्रकृतांग सूत्र द्वारा निर्मित जगत् में भी होता, पर जगत् में सर्वज्ञत्व गुण नहीं दिखता | अतः ईश्वर जगत् का समवायीकारण भी नहीं है । वह कुम्हार की तरह जगत् का निमित्तकारण है । निमित्तकारण ७ प्रकार का होता है - कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध और अधिकरण । इसमें से ईश्वर जगत् का कर्तारूप कारण है । वैशेषिकों की मान्यता भी ईश्वरकर्तृत्ववाद के सम्बन्ध में लगभग ऐसी ही है । 'पहाणाइ तहावरे' शास्त्रकार ने लोक के कर्तृत्व के विषय में अब सांख्यमतवादियों का विचार प्रस्तुत किया है कि वे मानते हैं कि जगत् ईश्वर का किया हुआ नहीं है । उनका तर्क यह है कि यह शब्दादि प्रपंचमय जगत् सुख-दुःख, मोह आदि से युक्त है अतएव इस प्रपंच का कारण (ईश्वर) भी सुख, दुःख और मोह आदि से युक्त होना चाहिए। चूँकि ईश्वर पुरुष ( आत्मा ) है, वह सुख-दुःख आदि प्रपंचों से दूर, निर्गुण, निष्क्रिय, साक्षी, निर्लेप और अकर्ता है । अतः वह जगत् का कर्ता नहीं हो सकता । सुख-दु:ख आदि सब प्रपंच प्रकृति के कार्य हैं । अतः वही जगत् का उपादानकारण है । सत्त्व, रज और तम की साम्यावस्था को प्रकृति कहते हैं । वह प्रकृति पुरुष के भोग और मोक्ष के लिए क्रिया में प्रवृत्त होती है । यहाँ आदि शब्द यह ध्वनित होता है कि जगत् की उपादानकारण प्रकृति (प्रधान) है, उस प्रकृति से महान् ( बुद्धितत्त्व ) उत्पन्न होता है और बुद्धि से अहंकार तथा अहंकार से सोलह गण (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, मन और पाँच तन्मात्राएँ १६ तत्त्व ) उत्पन्न होते हैं, सोलह गणों में से पाँच तन्मात्राओं से पंच महाभूत उत्पन्न होते हैं । इस क्रम से यह सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न होती है । मूल में प्रकृति के द्वारा महदादिक्रम से स्पष्टतः सृष्टि होती है । हमने सांख्यदर्शन के २५ तत्त्वों का पिछले पृष्ठों में स्वरूप बताया है। वही यहाँ समझ लेना चाहिए । अथवा 'आदि' शब्द से काल, स्वभाव, नियति आदि के द्वारा यह जगत् कृत है । इन सबके स्वरूप का वर्णन भी पीछे हम कर आये हैं । एकान्त कालवादी काल को ही जीव अजीवमय या सुख-दुःख से युक्त जगत् का कारण मानते हैं । एकान्तस्वभाववादी कहते हैं जगत् किसी कर्ता द्वारा किया हुआ नहीं है, अपितु स्वभावकृत है। एकान्तनियतिवादी कहते - जैसे मोर के पंख नियतिवश रंगबिरंगे व विचित्र होते हैं, वैसे ही यह समस्त विश्व नियति से उत्पन्न हुआ है, नियतिकृत है । इस प्रकार विभिन्न एकान्तमतवादी जगत् की उत्पत्ति अपने-अपने मतानुसार बनाते हैं । 'जीवाजी वसमाउते सुहदुक्खसमन्निए- ये दोनों लोक के विशेषण 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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