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समय : प्रथम अध्ययन -- तृतीय उद्देशक
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अपेक्षा रखता है । यदि ईश्वर स्वयं कृतक होकर भी जगत्कर्ता होगा तो उस ईश्वर को बनाने वाला अन्य कर्ता मानना पड़ेगा, वह भी अनित्य होगा तो उसे बनाने वाला भी अन्य कर्ता मानना होगा, इस प्रकार अनवस्था दोष होगा । अतः ईश्वर को नित्य ही मानना चाहिए ।
नित्य मानकर भी उसे एक (अद्वितीय) मानना चाहिए। क्योंकि अनेक ईश्वर माने जाएँगे तो 'मुंडे-मुंडे मतिभिशा' की कहावत के अनुसार एक ही वस्तु को बनाने में सब अपनी-अपनी इच्छानुसार अलग-अलग डिजाइन एवं आकार-प्रकार का बनायेंगे, इसलिए किसी भी वस्तु में एकरूपता और सदृशता नहीं रहेगी । बहुनायकत्व होने पर अव्यवस्था और विसंवादिता पैदा होगी । अतः एक ही ईश्वर मानना उचित है ।
उक्त जगत्कर्ता ईश्वर को सर्वज्ञ भी मानना चाहिए । अल्पज्ञ होगा तो उसे उत्पन्न किये जाने वाले कार्यों की रचना का सम्यक् परिज्ञान नहीं होने से पदार्थों का यथावत् निर्माण करना उसके लिए अत्यन्त कठिन होगा । सर्वज्ञ होने पर ही वह अल्पज्ञ प्राणियों को उनके अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों को भली भाँति जान कर यथायोग्य नरक-स्वर्ग आदि में भेज सकेगा । संसारी प्राणियों को अपने कर्मों के फल का ज्ञान नहीं होता, वे अच्छे-बुरे कर्म करने में स्वतन्त्र हैं, पर फल भोगने का उन्हें ज्ञान नहीं होता । परमेश्वर सर्वज्ञ होता है, वह उन्हें उनके उनके कर्मानुसार फल भोगने के लिए विविध गतियों या योनियों में भेजता है । कहा भी है
अज्ञोजन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गवाश्वभ्रमेव वा ।।
अर्थात् -- यह अल्पज्ञ प्राणी अपने किये हुए कर्मों के सुख-दुःखफल को जानने में असमर्थ है, अतः उन फलों को भोगने के लिए ईश्वर के द्वारा प्रेरित ( भेजा गया ) ही वह स्वर्ग या नरक में जाता है ।
फिर वह ईश्वर सर्वशक्तिमान भी होना चाहिए अन्यथा प्राणी उसके काबू में नहीं आएँगे, वे ईश्वर पर ही हावी हो जाएँगे। यह है नैयायिकों द्वारा मान्य ईश्वर द्वारा जगत्कर्तृत्ववाद का स्वरूप ! नैयायिकों का ईश्वर जगत् का उपदानकारण या समवायिकारण नहीं है। क्योंकि उपादानकारण तो कार्यरूप होता है, यदि ईश्वर को जगत् के जड़-चेतन पदार्थों का उपादानकारण माना जाता तो वह जड़ को बनाकर जड़मय बन जाता, चेतनावान नहीं रहता । यदि उसे जगत् का समवायी कारण माना जाता तो जैसे समत्राकारण अपने समानजातीय दूसरे गुणों को कार्यरूप में उत्पन्न करता है वैसे ही इस नियम के अनुसार ईश्वर में विद्यमान वज्ञताका गुण उसके
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