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________________ २१० सूत्रकृतांग सूत्र असाधारण पुरुष-विशेष सिद्ध होता है। वह पुरुष-विशेष हम लोगों के समान साधारण पुरुष नहीं हो सकता, क्योंकि सारे विश्व के पदार्थों का निर्माण वही कर सकता है, जिसे उन सबके जनक-कारणों का सर्वतोमुखी ज्ञान हो । सर्वज्ञता के बिना विश्व के जनक-कारणों का ज्ञान होना असम्भव है। और बिना जाने कोई उनका यथायोग्य संयोग या प्रयोग भी नहीं कर सकता। जैसे कुम्हार को घड़ा बनाने में मिटटी, पानी, चक्र आदि जनक-कारणों का ज्ञान है, तभी वह उन सबका यथायोग्य उपयोग कर लेता है वैसे ही विश्व के कार्यो के लिए उन सबके जनक-कारणों का ज्ञान होना आवश्यक है। और विश्व-रचना जैसे विशाल कार्य के जनक-कारणों का ज्ञान किसी साधारण पुरुष को हो नहीं सकता। अतः इस विश्व की रचना करने वाला सांसारिक जीवों से विलक्षण कोई पुरुष-विशेष अवश्य मानना चाहिए। वह पुरुष ईश्वर ही है। दूसरा हेतु यह है कि पृथ्वी-समुद्र आदि कार्य हैं, इसलिए इनका कोई न कोई कर्ता अवश्य है। क्योंकि कर्ता के बिना कार्य नहीं हो सकता। जैसे घट आदि कार्य कुम्हार आदि के बिना नहीं होते। इसी तरह यह पृथ्वी, समुद्र आदि कार्य भी किसी कर्ता के बिना नहीं हो सकते । अतः इनका कोई न कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए। और वह कर्ता कोई साधारण पुरुष नहीं हो सकता । अत: असाधारण पुरुष ईश्वर ही है, जो विश्व-रचना सदृश असाधारण कार्य करता है । तीसरा हेतु यह है - जैसे वसूला अपने आप कोई कार्य नहीं करता, किन्तु कारीगर जब चाहता है, तभी उसके द्वारा काम लेता है। इसी तरह पृथ्वी, समुद्र, पर्वत आदि अपने आप कोई कार्य नहीं करते, विन्तु मनुष्य आदि प्राणी जब चाहते हैं, तब इनसे काम लेते हैं। अतः जैसे बसूला पराधीन प्रकृति वाला होने के कारण किसी कर्ता द्वारा किया हुआ है इसी तरह पराधीन प्रवृत्ति वाले होने के कारण पृथ्वी आदि भी किसी के द्वारा किये हुए हैं। जिसने इन्हें किया है, वह ईश्वर है। ___वह ईश्वर आकाश के समान समस्त जगद्व्यापी है। यदि ईश्वर को किसी नियत स्थान में रहने वाला मान लिया जाए तो यह विभिन्न देशवर्ती पदार्थों का निश्चित रूप में यथावत् निर्माण नहीं कर सकेगा। जैसे ---एकदेशवर्ती कुम्हार अति दूर देश में घड़े को उत्पन्न नहीं कर सकता। अत: समस्त जगत में पदार्थों की प्रतिनियत रूप में उत्पत्ति ही ईश्वर को व्यापक सिद्ध कर देती है। ___ इसी प्रकार वह जगत्कर्ता ईश्वर नित्य है। क्योंकि यदि उसे अनित्य माना जाएगा तो ईश्वर अपनी उत्पत्ति में भी अन्य कारणों की अपेक्षा रखेगा, इसलिए वह कृतक हो जाएगा। कृतक वह होता है, जो अपनी उत्पत्ति में पर के व्यापार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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